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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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देव ने अरहन्तदेव को जद की उपना की है। अरहन्तरूपी नद विशाल होने से इसे महानद कहा है ।
जिस प्रकार महानद में तीर्थ होते हैं उसी प्रकार इस महानद में भी ग्यारह अङ्ग, चौदह पूर्व रूपी उत्तम तीर्थ हैं, जिनमें डुबकी लगाने वाला भव्य जीव संसार सागर से पार हो जाता है। अथवा जिससे संसार समुद्र तिरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं। इस द्वादशांग का आश्रय लेने वाले संसारी जीव संसार से तिर जाते हैं अतः अर्हत् भगवान का मत उत्तम तीर्थ है ।
लौकिक नदों के तीर्थ में स्नान से शरीर मल दूर होता है किन्तु अरहन्तदेवरूपी महानद के उत्तम तीर्थ में स्नान करने से पाप पंक का प्रक्षालन होता है। भव्य जीव इस नद के उत्तम तीर्थ में समस्त पापों का क्षय कर मुक्ति को प्राप्त होते हैं। यह एक असाधारण तीर्थ हैं, सर्वश्रेष्ठ
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है । तीनों लोकों की यात्रा करने वाले भव्यजीवों के पापों का नाश करने में अद्वितीय कारण है । यह अलौकिक महानद का महातीर्थ मेरे समस्त पापों का नाश करे वाला हो ।
लोकालोक - सुतत्त्व प्रत्यव बोधन समर्थ दिव्यज्ञानप्रत्यह- वहप्रवाहं व्रत शीलामल - विशाल कूल द्वितयम् ।। २४ ।।
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अन्वयार्थ – ( लोक- अलोक-सुतत्त्व-प्रति-अवबोधन- समर्थ दिव्यज्ञानप्रत्यह- वहत् - प्रवाहं ) लोक और अलोक के समीचीन तत्त्वों का ज्ञान कराने में समर्थ दिव्यज्ञान का प्रवाह जिसमें निरन्तर बह रहा है ( व्रत- शीलअमल- विशाल- कूल- द्वितयं ) व्रत और शील जिसके दो निर्मल विशाल दो तट हैं ।
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भावार्थ – जिस प्रकार तीर्थ से पानी का प्रवाह बहता रहता है उसी प्रकार अरहन्तदेवरूप महानद से लोक और अलोक का जो स्वरूप है, जीवादिक पदार्थों का जो यथार्थ स्वरूप है उसको पूर्ण रूप से जानने में समर्थ ऐसे केवलज्ञानरूप दिव्य ज्ञान का प्रवाह प्रतिदिन बहता रहता है । उस महानद के ५ महाव्रत और १८ हजार प्रकार का शील ये दो तट हैं । शुक्लध्यान स्तिमित स्थित राजद्राजहंस- राजित मसकृत् । स्वाध्याय- मन्द्रघोषं नाना- गुण समिति गुप्ति-सिकता - सुभगम् ।। २५ ।
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