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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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इन मूल तीन भंगों के परस्पर मिलाकर तीन युगल ( द्वि संयोगी ) रूप होते हैं १ हैं और नहीं ( अस्ति नास्ति ) रूप, २. है और न कह सकने योग्य ( अस्ति अवक्तव्य ), ३. नहीं और न कह सकने योग्य ( नास्ति अवक्तव्य ) रूप ।
एक भंग तीनों का मिला हुआ ( त्रिसंयोगी ) होता है— हैं, नहीं और न कह सकने योग्य ( अस्ति नास्ति अवक्तव्य ) |
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इस तरह वचनभंग सात तोंगों के स्वमुदाय ( सप्तानां भंगानां समुदायः सप्तभंगी ) "सप्तभंगी" कहते हैं। इस तरह स्यात् पद लगाकर उन सात भंगों के नाम यों हुए -- १. स्यात् अस्ति, २. स्यात् नास्ति ३. स्यात् अस्ति नास्ति, ४. स्यात् अवक्तव्य, ५. स्यात् अस्ति अवक्तव्य ६ स्यात् नास्ति अवक्तव्य ७ स्यात् अस्ति नास्ति
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अवक्तव्य |
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१. प्रत्येक वस्तु अपने (विवक्षित कहने के लिये इष्ट ) दृष्टिकोण ( द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा ) अस्तित्व रूप होती है ।
२. प्रत्येक वस्तु अन्य वस्तु या अन्य ( अविवक्षित ) दृष्टिकोणों की अपेक्षा अभाव नास्तित्व रूप होती है जैसे- राम राजा जनक की अपेक्षा के पुत्र नहीं हैं । ( ३ ) दोनों दृष्टिकोणों को क्रम से कहने पर अस्तित्व तथा अभाव ( अस्ति नास्ति ) रूप होती है। जैसे- राम दशरथ के पुत्र हैं, जनक के पुत्र नहीं हैं । (४) परस्पर विरोधी [ हैं तथा नहीं रूप ] दोनों दृष्टिकोणों से एकसाथ वस्तु वचन द्वारा कहीं नहीं जा सकती क्योंकि वैसा वाचक ( कहने वाला ) कोई शब्द नहीं है। अत: उस अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य होती है। जैसे- राम राजा दशरथ तथा जनक की युगपत् [ एक साथ एक शब्द द्वारा ] अपेक्षा कुछ नहीं कहे जा सकते । ५. वस्तु न कह सकने योग्य [ युगपत् कहने की अपेक्षा अवक्तव्य ] होते हुए भी अपने दृष्टिकोण से होती तो हैं [ स्यात् अस्ति अवक्तव्य ] जैसे राम यद्यपि दशरथ तथा जनक की अपेक्षा एक ही शब्द द्वारा अवक्तव्य [ न कहे जा सकने योग्य ] है फिर भी राजा दशरथ की अपेक्षा पुत्र हैं । [ स्यात् अस्ति अवक्तव्य ] (६) वस्तु अवक्तव्य [ युगपत् कहने की अपेक्षा ] होते हुए