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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२८१ स्तुति करने का फल यदिदं मम सिद्धभक्ति-नीतं, सुकृतं दुष्कृत-वर्त्म-रोधि तेन । पदुना जिनधर्म एव भक्ति-भव-ताजन्मनि जन्मनि स्थिरा मे ।।१५।।
अन्वयार्थ-( सिद्धभक्ति-नीतं ) तीन जगत् में प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्ति से प्राप्त और ( दुष्कृतवमरोधि ) खोटे मार्ग को रोकने वाला ( मम ) मेरा ( यत् इदं सुकृतं ) जो यह पुण्य है ( तेन पटुना ) उस प्रबल पुण्य से ( मे भक्तिः ) मेरी भक्ति ( जन्मनि-जन्मनि ) जन्म-जन्म में ( जिनधर्मे ) जिनधर्म में ( एव ) ही ( स्थिरा भवतात् ) स्थिर हो ।
भावार्थ हे प्रभो ! मैंने पाप-मार्ग को रोकने वाली जगत् प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्ति से जो पुण्य प्राप्त किया है, उसके फल से मेरी जन्म-जन्म में मुक्ति प्राप्ति न हो तब तक जिनेन्द्र कथित धर्म में ही स्थिरता बनी रहे । मुझे निर्वाणय॑न्त जैनधर्म की ही प्राप्ति हो । ४. विश्व-चैत्य-चैत्यालय-कीर्तन
अनुष्टुप अर्हतां सर्वभावानां दर्शन-ज्ञान-सम्पदाम् । कीर्तयिष्यामि चैत्यानि यथाबुद्धि विशुद्धये ।।१६।।
अन्वयार्थ ---( सर्वभावानाम् ) सर्व पदार्थों की समस्त पर्यायों को युगपत् जानने वाले सर्वज्ञ ( ज्ञान-दर्शन-सम्पदाम् ) ज्ञान दर्शन रूप सम्पत्ति से सहित ( अर्हतां चैत्यानि ) अरहन्त भगवन्तों के प्रतिबिम्बों की ( यथाबुद्धि ) अपनी बुद्धि के अनुसार ( विशुद्धये ) विशुद्धि प्राप्त करने के लिये ( कीर्तयिष्यामि ) स्तुति करूँगा।
भावार्थ-त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों की कालिक पर्यायों को युगपत् विषय करने वाले सर्वज्ञदेव, जो अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन रूप सम्पत्ति से सुशोभित हैं, उन अरहन्त-देव की समस्त त्रिलोक स्थित प्रतिमाओं की मैं अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करूँगा।
श्रीमद्-भवन-वासस्था स्वयं भासुर-मूर्तयः । वन्दिता नो विधेयासुः प्रतिमाः परमां गतिम् ।।१७।।