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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
अन्वयार्थ - ( स्वयं भासुर - मूर्तयः ) स्वभाव से देदीप्यमान शरीर को धारण करने वाली ( श्रीमत् भनवासरक) बड़ी मूर्ति को धारण करने वाले भवनवासी देवों के भवनों में स्थित ( प्रतिमाः ) जिनप्रतिमाएँ ( वन्दिताः ) वन्दना को प्राप्त होती हुई ( नः ) हम सब की ( परमां गतिं ) उत्कृष्ट गति ( विधेयासुः ) करे अर्थात् उनकी वन्दना से हम सबको उत्कृष्ट गति की प्राप्ति हो ।
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भावार्थ - बड़ी विभूति के धारक भवनवासी देवों के सुन्दर-सुन्दर विमानों में विराजित अनादि-निधन, स्वभाव से ही देदीप्यमान शरीर को धारण करने वाली, देवों के द्वारा सदा पूज्य / वन्दित जिन प्रतिमाओं की वन्दना से हम सब भक्तजनों को उत्तम मोक्ष गति की प्राप्ति हो । अर्थात् जो वीतराग देव की स्तुति, आराधना करता है वह जीव मुक्ति का पात्र बनता है ।
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च ।
तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये ।। १८ ।।
अन्वयार्थ - ( अस्मिन् लोके ) इस मध्य लोक / तिर्यक् लोक में ( यावन्ति ) जितनी (अकृतानि ) अकृत्रिम (च ) और (कृत्रिम ) कृत्रिम ( चैत्थानि ) प्रतिमाएँ (सन्ति) हैं ( तानि सर्वाणि ) उन सबको ( भूयांसि भूतये ) अन्तरंग - बहिरंग महा विभूति के लिये ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।
भावार्थ - मध्य लोक में ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों के जिनबिम्ब व कृत्रिम चैत्यालयों में जितने भी जिनबिम्ब हैं, उन समस्त जिनबिम्बों/ जिनप्रतिमाओं को मैं अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग व समवसरणादि बहिरंग परम विभूति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।
ये व्यन्तर विमानेषु स्थेयांसः प्रतिमागृहाः ।
ते च संख्या-मतिक्रान्ताः सन्तु नो दोष- विच्छिदे ।। १९ । । अन्वयार्थ – ( व्यन्तरविमानेषु ) व्यन्तर देवों के विमानों में ( ये ) जो ( स्थेयांसः ) सदा स्थिर रहने वाले ( प्रतिमागृहाः ) चैत्यालय हैं (च ) और ( संख्याम् अतिक्रान्ता: ) असंख्यात हैं ( ते ) वे ( नः ) हमारे ( दोषविच्छिदे सन्तु ) दोषों को नाश करने के लिये होवें ।
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