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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भी अन्य दृष्टिकोण से नहीं रूप है । स्यात् नास्ति अवक्तव्य ] जैसे राम युगपत् दशरथ तथा जनक की अपेक्षा अवक्तव्य होते हुए भी राजा जनक की अपेक्षा पुत्र नहीं हैं। [ स्यात् नास्ति अवक्तव्य ] (७) परस्पर विरोधी [ हैं और नहीं रूप] दृष्टिकोणों से युगपत् { हैं और नहीं रूप ] दृष्टिकोणों से गुपद कपास का ही शाम भाग, अवक्तव्य [ न कह सकने योग्य] होते हुए भी वस्तु क्रमश: उन परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों से है, नहीं रूप होती है। [ अस्ति नास्ति अवक्तव्य ] जैसे-राम राजा तथा जनक की अपेक्षा युगपत् रूप से कुछ भी नहीं कहे अवक्तव्य हैं किन्तु युगपत् की अपेक्षा अवक्तव्य होकर भी क्रमश: राम राजा दशरथ के पुत्र हैं, राजा जनक के पुत्र नहीं हैं।
इस प्रकार सप्तभङ्गी प्रत्येक पदार्थ में लागू होती है । सप्तभंगी के लागू होने के विषय में मूल बात यह है कि प्रत्येक पदार्थ में अनुयोगी [अस्तित्व रूप] और प्रतियोगी [ अभाव रूप-नास्तित्व रूप] धर्म पाये जाते हैं तथा अनुयोगी प्रतियोगी धर्मों को युगपत् [ एकसाथ ] किसी भी शब्द द्वारा न कह सकने योग्य रूप अवक्तव्य धर्म भी प्रत्येक पदार्थ विद्यमान है। अनुयोगी, प्रतियोगी और अवक्तव्य इन तीनों धर्मों के एक संयोगी [ अकेले-अकेले] तीन भंग होते हैं, द्विसंयोगी [ युगल रूप] तीन भंग होते हैं तथा तीनों का मिलकर त्रिसंयोगी भंग एक होता है । इस तरह सब मिलकर सात भंग हो जाते हैं । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक पदार्थ के स्वरूप का प्रकाशक केवलज्ञान सदा जयवंत हो । जिस सुख के पीछे कोई दुख नहीं है, जो जन्म-जरा-मृत्यु व अनेक व्याधियों से रहित सुख है वही वास्तव में निरुपम सुख है, वह सुख मुक्त अवस्था में है। यहाँ आचार्य देव जिनदेव, जिनधर्म, जिनागम व जिनशान/केवलज्ञान रूप चतुष्टय महानिधियों से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! अनुपम सुखरूपी मुक्तिद्वार पर मोहरूपी साँकल व अन्तराय रूपी अर्गल/बेड़ा लगा हुआ है। अत: मोहरूपी द्वार खोलकर अन्तराय रूपी अर्गल को भी दूर कीजिये तथा रज रहित कीजिये अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म को दूर कीजिये । तात्पर्य हे प्रभो ! मुझे चार घातिया कर्मों से अथवा अष्ट कर्मों के रज से दूर कर मुक्ति प्रदान कीजिये।