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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ—( यस्य ) जिन अरहंत देव के ( हेम-अम्भोज-प्रचारविजृम्भितौ ) स्वर्णमयी कमलों पर अन्तरीक्ष गमन/चलने से शोभायमान तथा ( अमर-मुकुटच्छाया-उद्गीर्ण प्रभा-परिचुम्बितौ) देवों के मुकुटों की कान्ति से निकली हुई प्रभा से सुशोभित हुए ( पादौ ) चरण-युगल को ( प्रपद्य ) प्राप्त करके ( कलुष हृदयाः ) कलुषित-मलिन हृदय वाले अर्थात् कलुषित परिणामों वाले जीव, ( मान-उद्घान्ताः ) अहंकार से भ्रान्ति को प्राप्त जीव और ( परस्पर-वैरिणः ) आपस में वैरभाव रखने वाले जीव ( विगत-कलुषा ) कलुषता/मलिन परिणामों से रहित होते हुए ( विशश्वसुः ) परस्पर में विश्वास को प्राप्त होते हैं ( स ) वे ( भगवान ) केवलज्ञानयुक्त, परम अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी अरहंत परमेष्ठी ( जयति ) जयवंत रहते हैं।
भावार्थ-अरहंत परमेष्ठी का गमन/विहार सामान्य पुरुषों की तरह नहीं होता। वे सामान्य जीवों की तरह पीछे, आगे पैर रखकर नहीं चलते हैं । वे दोनों चरणों को कमल समान रखते हुए विहार करते हैं। वे सदा
अन्तरीक्ष में विहार करते हैं। विहार के समय देवगण चरण-कमलों के नीचे २२५ कमलों की सुन्दर रचना करते हैं। एक आचार्य के मत से केवली भगवान डगभरकर चलते हैं । विहार उस समय देवों के मुकुटों की मणियों से निकलती हुई किरणों के संयोग से जिनदेव के चरण-कमल विशेष शोभा को प्राप्त होते हैं। जिनदेव के ऐसे परम-पुनीत शोभायमान चरण-कमलों का आश्रय पाकर अर्थात् दर्शन पाकर जीवो के परिणामों में निर्मलता आती है, अहंकार गल जाता है, भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं। इतना ही नहीं, जिनदेव के आश्रय को पाकर जातिविरोधी जीव सर्प-नेवला, चहा, बिल्ली आदि भी आपस में प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं। शान्ति का अनुभव करते हैं, ऐसे देवों से बन्दनीय त्रिलोकीनाथ, वीतराग, अरहंत देव सदा जयवंत रहते हैं। भक्तामर स्तोत्र में आचार्य देव लिखते हैरखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण कमल सप दिव्य ललाम । अभिनन्दन के योग्य चरण तय, भक्ति रहे उनमें अभिराम ।।