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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२६३ शरीर वरम शरीर कहलाता है। सिद्ध अवस्था में मुक्त जीवों का शरीर चरम शरीर से कछ कम आकार वाला होता है। संसार अवस्था में एक भव से दूसरे भव को जाते हुए इस जीव का आकार कर्मों के उदय से बदलता था । अब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने मक्त में जीव का आकार चरम शरीर/पूर्व शरीर के आकार ही रहता है; तथा उसका परिमाण अन्तिम शरीर से कुछ कम रहता है क्योंकि शरीर के जिन भागों में आत्मा के प्रदेश नहीं है उतना परिमाण घट जाता है। यह कमी आकार की अपेक्षा नहीं किन्तु घनफल की अपेक्षा से है । टंकोत्कीर्ण रूप उनकी अविनाशी, अचिन्त्य अवस्था है।
मुक्त अवस्था में आत्मा स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित अमूर्तिक ही रहता है । इसके सिवाय वे भगवान क्षुधा, तृषा, श्वास, खासी, दमा, ज्वर आदि तथा घोर, दुख जिससे उत्पन्न होते हैं ऐसे संसार वर्द्धक दुखों के क्षय से अनंत सुखों को प्राप्त हो गये हैं। सिद्धों के अनन्त सुखों का परिमाण कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं कर सकता है।
आत्मोपादान-सिद्ध स्वयं-मतिशय-वद्-वीत-बाधं विशालम् । वृद्धि - हास - व्यपेतं, विषय-विरहितं निःप्रतिद्वन्द्व-भावम् । अन्य - द्रव्यानपेक्ष,निरुपमममितं शाश्वतं सर्व-कालम् । उत्कृष्टानन्त - सारं, परम-सुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ।।७।।
अन्वयार्थ ( अत: ) क्षुधा आदि भयंकर दु:खों के अभाव से ( तस्य सिद्धस्य ) उन सिद्धपरमेष्ठी ( परम सुखं ) श्रेष्ठ अनन्त सुख ( जातम् ) उत्पन्न हुआ है वह ( आत्मा-उपादान-सिद्धं ) आत्मा की उपादान शक्ति से अथवा आत्मा से ही उत्पन्न है । वह सुख ( स्वयम्-अतिशयवत् ) सहज/ स्वाभाविक अतिशयवान् है, ( वीतबाधं ) बाधा रहित है, ( विशालं ) अत्यन्त विस्तीर्ण होता है अर्थात् आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होकर रहता है ( वृद्धि-हास-व्यपेतं ) वह सुख हीनाधिकता से रहित है, (विषय-विरहितं ) पंचेन्द्रिय विषयों से रहित है, ( नि:प्रतिद्वन्द-भावं ) प्रतिपक्षी भाव से रहित है, ( अन्य-द्रव्यानपेक्षं) अन्य द्रव्य/पदार्थों की अपेक्षा से रहित है । निरुपम ) उपमातीत है। अमितं ) सीमातीत है प्रमाणातीत है ( शाश्वतं ) अचल है, अविनाशी है, ( सर्वकालं ) सदा बना रहने वाला