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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२६५ समस्त पदार्थों के दिखाई देने पर ( दीप-अनर्थक्यवत् ) दीप की निरर्थकता के समान सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तों के ( क्षुत्तृट-विनाशात् ) क्षुधा/भूख, प्यास का विनाश हो जाने से ( विविध-रसयुतैः अन्नपानैः ) षट् रस मिश्रित भोजन व परनी आदि से ( न अर्थ: ) कोई प्रयोजन नहीं है । ( अशुच्याः अस्पृष्टेः ) अशुचिता/अपवित्रता से स्पर्श नहीं होने से ( गन्धमाल्यै न ) सुगंधित चन्दन, इत्र, फुलेल आदि व पुष्प मालाओं आदि से कोई प्रयोजन नहीं है तथा ( ग्लानि-निहादि-भावात् । थकावट, निगा भादि का सर्व अभाव होने से ( मृदुशयनैः न हि अर्थः ) निश्चय से कोमल शय्या से भी कोई प्रयोजन नहीं है।
भावार्थ सिद्ध परमात्मा की सिद्धपर्याय पूर्ण स्वातन्त्र्य की प्रतीक है। उस पर्याय में पर की अपेक्षा ही नहीं है । संसारी जीवों के असातावेदनीय के उदय से क्षुधा, पिपासा आदि पीड़ाएँ उत्पन्न होती है अतः घट्स युत विविध व्यञ्जन व पेय पदार्थो से व शरीर की रक्षा करते हैं। सिद्ध परमेष्ठी जिनों के क्षुधा, तृषा आदि दोषों का पूर्ण अभाव हो गया है अत: उन्हें विविध प्रकार के भोजन व पानी आदि से कोई प्रयोजन नहीं रहता, , वे सदा स्वरूप में लीन रहते हैं । संसारी जीवों का शरीर सात कुधातुओं से भरा अशुचि है, अशुचिता के संबंध होने से संसारी जीव उसे दूर करने के लिये नाना प्रकार के सुगंधित पदार्थों का उपयोग करते हैं परन्तु उन सिद्ध परमात्मा के शरीर के अभाव होने अशुचिता का स्पर्श नहीं देखा जाता। अत: सुगंधित द्रव्य तथा मालाओं से उन्हें कोई प्रयोजन ही नहीं है। संसारी जीव निरन्तर मोहाभिभूत हो श्रम करता रहता है। थकावट होने पर कोमल शय्या आदि पर शयन करता है परन्तु सिद्ध परमेष्ठी जिनों के पास अनन्त वीर्य एक ऐसी अद्भुत शक्ति है कि "त्रिकालवती समस्त पदार्थों को देखते-जानते रहने पर भी वे कभी थकते नहीं। जहाँ थकान नहीं हैं ऐस सिद्धों के कोमल शय्या आदि से भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। ___सत्य ही है जैसे रोग के अभाव में औषधि का कोई प्रयोजन नहीं, अंधकार के अभाव में दीपक का कोई उपयोग नहीं, ठीक उसी प्रकार पूर्ण स्वावलंबी आत्मा के सिद्धपर्याय में पूर्ण स्वाधीनता हो जाने पर द्रव्य/पर पदार्थ का कोई प्रयोजन नहीं रहता । वास्तव में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त सिद्ध परमात्मा ही है ।