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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
दिया है। जिसका भाव हैं कि आत्मा सांख्य दर्शन की तरह सर्वथा कूटस्थ नहीं हैं अपितु द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं तथा बौद्धमत की तरह सर्वथा क्षणिक भी नहीं है किन्तु पर्याय दृष्टि से अनित्य / उत्पाद व्यय स्वभाव वाला है। अतः आत्मा नित्यानित्यात्मक है ।
आचार्य श्री के इस स्तुति पद में द्रव्यसंग्रह की गाथा नं० २ का सजीव चित्रण ही पाने लिपिबद्ध हो राग है-
जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्यो सिद्धो सो विस्ससोड्डगई ।
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त्वर्बाह्य हेतु प्रभव- विमल सद्दर्शन- ज्ञान चर्या - व्यञ्जिताचिन्त्य सारैः । दुरित तया
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संपद्धेति प्रघात क्षत कैवल्यज्ञान दृष्टि- प्रवर सुख - महावीर्य सम्यक्त्व - लब्धिज्योतिर्वातायनादि स्थिर परम गुणै रद्भुतै र्भासमानः ।। ३ ।। अन्वयार्थ - (तु) और ( स ) वह सिद्धात्मा ( अन्तर्बाह्यहेतु-प्रभवत्रिमलसद्दर्शन-ज्ञान-चर्या - संपद्धेति प्रघाल-क्षत- दुरिततया ) अन्तरंग - बहिरंग कारणों से उत्पन्न निर्मल सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति रूप शस्त्र के प्रबल प्रहार से पाप कर्मों के पूर्ण क्षय हो जाने से (व्यञ्जिता अचिन्त्वसारै: ) प्रकट हुए अचिन्त्य सार हो युक्त ( कैवल्यज्ञान-दृष्टिप्रत्त्रर मुख-महावीर्य-सम्यक्त्व-लब्धि ज्योतिर्वातायन आदि स्थिर परमगुणैः अद्भुतैः) केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग रूप नवलब्धियों, भामण्डल, चंवर, सिंहासन, छत्र आदि आश्वर्यकारी श्रेष्ठ गुणों से [ भासमानः ] शोभायमान है ।
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भावार्थ -- जीवात्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध हैं। कर्मों से मुक्त हो सिद्ध अवस्था की प्राप्ति में रत्नत्रय की एकता सर्वोपरि है। सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र तीनों के अन्तरंग - बहिरंग कारणों के मिलने पर ही रत्नत्रय की प्राप्ति होती है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम अन्तरंग कारण हैं तथा जिनबिंब दर्शन, पंचकल्याण पूजा, वेदना, जातिस्मरण व सद्गुरु की देशना आदि बहिरंग कारण हैं । सम्यग्ज्ञान
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