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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका पाण-दो-तीन-चतुरीन्द्रिय जीव/विकलेन्द्रिय जीव । भूत-वनस्पत्तिकायिक । जीव–पञ्चेन्द्रिय और । सस्व----पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक ।
वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्राणाः भूतास्ते तरवः स्मृताः । जीवा: पंचेन्द्रिया: ज्ञेयाः रोगासा: प्रीतिः ।
शार्दूलविक्रीडितम् । पापिष्ठेन दुरात्मना जहधिया, मायाविना लोभिना, रागद्वेषमलीमसेन मनसा, दुष्कर्म यनिर्मितम् । त्रैलोक्याधिपते ! जिनेन्द्र ! भवतः श्रीपाद मूलेऽथुना, निन्दापूर्वमहं जहामि सततं, निवर्तये कर्मणाम् ।। १।।
अन्वयार्थ---( त्रैलोक्याधिपते ! ) हे तीन लोक अधिपति ( जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र देव ( पापिष्ठेन, दुरात्मना, जडधिया ) मुझ पापी, दुष्ट, मन्दबुद्धि ने ( मायाविना, लोभिना ) मायाचारी लोभी ने ( रागद्वेषमलीमसेन मनसा ) राग-द्वेष की मलीनता से मनीन मनसे ( यत् ) जो ( दुष्कर्म ) पाप कर्म ( निर्मितम् ) किये हैं ( अधुना ) अब ( भवत: श्री पादमूले ) आप श्री जिनदेव के चरण मूल में ( अहं ) मैं ( कर्मणाम् निर्वर्तये) कर्मों का क्षय करने के लिये ( सततं ) हमेशा के लिये ( निन्दापूर्वम् ) निन्दा पूर्वक/ पश्चात्ताप करता हुआ ( जहामि ) छोड़ता हूँ।
भावार्थ-हे तीन लोक के स्वामी ! हे जिनेन्द्र देव ! मुझ पापी, दुष्ट, मन्दबुद्धि, मायावी, लोभी राग-द्वेष की मलीनता से मलीन मन ने जो भी पाप उपार्जन किये हैं, आप श्री के चरण कमलों में पापकर्मों का मैं मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा के लिये त्याग करता हूँ।
जिनेन्द्रमुन्मूलित कर्मबन्ध, प्रणम्य सन्मार्गकृत स्वरूपम् । अनन्तबोधादि भवंगुणोघं, क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये ।। २ ।।
अन्वयार्थ-जिन्होंने ( कर्मबन्धं उन्मूलित ) चार घातिया कर्म को जड़ से क्षय कर दिया है ( सन्मार्गकृतस्वरूपम् ) समीचीन मुक्ति मार्ग अनुसार अपने स्वरूप को प्रकट किया है ( अनन्तबोधादि भवं गुणोघं )