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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका “देव की वन्दना आवश्यक है। ऐसा मानकर कुदेव की आराधना नहीं करना चाहिये : किसी क्षेत्रका में सुन हा मुग : पिस्न पावे तो हृदय में सुदेव स्मरण करते हुए नियम का पालन करे परन्तु कुदेवकुगुरु। रागी-द्वेषी देव-गुरुओं की आराधना न करे।
शार्दूलविक्रीडितम् । रूपं से निरुपाधि-सुन्दर-मिदं, पश्यन् सहस्प्रेक्षणः, प्रेक्षा-कौतुक-कारिकोऽत्र भगवन् नोक्त्यवस्थान्सरम् । वाणी गद्गद्यन् वपुः पुलकयन्, नेत्र-द्वयं श्रावयन्, मूर्धानं नमयन् करौ मुकुलयतोऽपि निर्वापयन् ।।१५।।
अन्वयार्थ-[भगवन् ! हे नाथ ! ( सहस्र-ईक्षण प्रेक्षा कौतुककारि ) हजारों नेत्रों से देखने का कुतूहल/उत्कंठा/उत्सुकता करने वाले ( निरुपाधिसुन्दरं ते इदं रूपं ) उपाधि अर्थात् वस्त्र, आभूषण आदि के बिना ही सुन्दर आपके इस रूप को ( पश्यन् ) देखने वाला ( क: अत्र ) कौन मानव इस जगत् में ( वाणी गद्गदयन् ) वाणी को गद्गद् करता हुआ, ( वपुः पुलकयन् ) शरीर को रोमाञ्चित करता हुआ( नेत्रद्वयं स्रावयन् ) दोनों नेत्रों से हर्षाश्रु झराता हुआ ( मूर्धानं नमयन् ) मस्तक को नमाता हुआ ( करौं मुकुलयन् ) दोनों हारों को जोड़ता हुआ और ( चेत: अपि निर्वापयन् ) चित्त को संतुष्ट करता हुआ ( अवस्थान्तरं न उपैति ) दूसरी अवस्था को प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् आपके इस रूप को देखकर कौन पुरुष अपनी अवस्था को नहीं बदल लेता?
भावार्थ हे वीतराग प्रभो ! आपका रूप वस्त्र, आभूषण आदि के बिना ही अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है तथा दर्शकों को कौतुक उत्पन्न करने वाला है। संसार में ऐसा कौन पुरुष है जो आपके सुन्दर रूप को देखकर अपनी अवस्था को न बदल ले । अर्थात् आपके सुन्दर रूप को देखकर सब जीवों की अवस्था में परिवर्तन हो जाता है । हजारों नेत्रों को धारण करने वाला इन्द्र भी आपके सुन्दर प्रशान्तमयी रूप को देखकर अपनी गद्गद्मयी वाणी से सहस्रनामों से आपकी स्तुति करते हुए ऐसा रोम-रोम में पुलकित होता है जिससे ललित तांडव नृत्य करता है । जो जीव हर्षाश्रुओं से रोमांचित होता हुआ दोनों
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