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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२४५ श्रद्धापूर्वक आपकी भक्ति करता है, वचनों से आपकी स्तुति करता है तथा काय से आपके चरणों में नत-मस्तक होता है/शिर झुकाता है, आपको प्रणाम करता है यथार्थ में वही धन्य है।
मन्दाक्रान्ता अन्मोन्मायं भजतु भवतः पाद-पद्मं न लभ्यम्, तच्चेत् स्वरं बरतु न च दुर्देवतां सेवतां सः । अश्नात्यानं यदिह सुलभं दुर्लभं चेन्मुधास्ते, क्षुद्-व्यावृत्यै कवलयति कः कालकूटं बुभुक्षुः ।।१४।।
अन्वयार्थ-यदि किसी जीव को ( जन्म-उन्मायँ ) अपने संसार भ्रमण से छूटना है/ जन्म का माजन-निवारण करना है तो ( स: ) वह ( भवतः पाद पद्मं भजतु ) आपके चरण-कमलों की सेवा करे । { चेत् तत् न लभ्यं ) याद आपके चरम-कमल प्राप्त न हो सकें तो स्वैरं चरतु ) अपनी इच्छानुसार आचरण करे परन्तु ( दुर्देवतां न सेवताम् ) कुदेवों की उपासना न करे । ( बुभुक्षुः ) भूखा मनुष्य ( इह यत् सुलभं ) यहाँ जो सुलभ है उस ( अन्नं अश्नाति ) अन्न को खाता है ( चेत् ) यदि ( दुर्लभं ) अन्न दुर्लभ ( आस्ते ) है तो ( मुधा क्षुद् व्यावृत्यै ) व्यर्थ ही भूख को दूर करने के लिये ( कालकूट क: ) कालकूट-विष को कौन ( कवलयति बुभुक्षु ) भूखा खाता है ? कोई नहीं।
भावार्थ जो कोई भव्यात्मा संसार के जन्म-मरण के दुःखों से छूटना चाहता है वह सर्वप्रथम आप जिनदेव के चरण-कमलों की सेवा करे । यदि जिनदेव चरण-कमल प्राप्त न हो सकें तो अपनी इच्छानुसार आचरण करे; उससे हमें कोई हानि नहीं । परन्तु कभी भूलकर भी कुदेवों की उपासना न करे । सत्य ही है कि भूखा मनुष्य जो भी उसे सुलभ है उस अन्न को खाता है; परन्तु अपनी क्षुधा को दूर करने के लिये कालकूट विष को कोई नहीं खाता।
हे भव्यात्माओं ! यहाँ पूज्यपाद स्वामी का यह तात्पर्य है कि कुदेवों की उपासना विषवत् है । विषमिश्रित लड देखने में अच्छे हों, पर खाते ही जान ले लेते हैं ठीक वैसे ही कुदेवों की उपासना अनन्त संसार में परिभ्रमण कराने वाली है अत: इसका कभी सेवन न करो।