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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका श्री मुखालोकनादेव, श्री-मुखालोकनं भवेत् ।
आलोकन-विहीनस्य, तत् सुखावाप्तयः कुतः ।।४।।
अन्वयार्थ ( श्रीमुखालोकनात् एव ) वीतरागता रूप लक्ष्मी से युक्त जिनेन्द्रदेव के मुख के देखने से ही ( श्रीमुख अलोकनं ) मुक्तिलक्ष्मी के मुख का दर्शन/अवलोकन ( भवेत् ) होता है । ( आलोकविहीनस्य ) जिनेन्द्र देव के दर्शन से रहित जीव को ( तत्सुख ) वह सुख. ( कुत: ) कैसे ( अवाप्तयः ) प्राप्त हो सकता है ?
__ भावार्थ-वीतराग रूप लक्षमी से अलंकृत जिनेन्द्रदेव के दर्शन करने से ही साक्षात् मुक्ति-लक्ष्मी का दर्शन हो जाता है किन्तु जो मनुष्य जिनेन्द्रदेव का दर्शन ही नहीं करते हैं; उन्हें वह सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
बसन्ततिलका अद्याभवत्-सफलता नयनस्यस्य,
देव ! त्वदीय-चरणाम्बुज-वीक्षणेन । अध-त्रिलोक-तिलक ! प्रतिभासते मे,
संसार-वारिधि रयं चुलुक-प्रमाणः ।।५।। अन्वयार्थ ( देव ! ) हे वीतराग देव ! ( अद्य ) आज ( त्वदीयचरणाम्बुज-वीक्षणेन ) आपके चरण-कमलों को देखने से/दर्शन से ( नयनद्वयस्य ) दोनों नयनों की ( सफलता ) सार्थकता ( अभवत् ) हो गई ( त्रिलोकतिलक ) हे तीन लोकों के तिलक स्वरूप भगवन् ! ( अद्य ) आज ( मे ) मुझे ( अयं संसार-वारिधि: ) यह संसार सागर ( चुलुक प्रमाणः ) चुल्लू प्रमाण ( प्रतिभासते) जान पड़ता है।
भावार्थ हे वीतराग भगवान् ! आपके पावन चरण-कमलों के दर्शन से आज मेरे दोनों नयन सफल हो गये हैं। हे तीन लोकों के तिलक भगवन् ! आज आपके दर्शन से मुझे यह अगाध संसार भी मात्र चुल्लूभर पानी सम प्रतीत होता है । जो अल्प समय में ही बूंद बूंद कर रिक्त होने वाला है।