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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
अनुष्टुप
अझ मे झालितं गात्रं नेत्रे च विमलीकृते । स्नातोऽहं धर्म-तीर्थेषु जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ।।६।।
अन्वयार्थ-( जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र भगवान् ! ( तव दर्शनात् ) आपके दर्शन से ( अद्य में गात्रं क्षालितं ) आज मेरा शरीर प्रक्षालित हो गया ( नेत्रे विमलीकृते ) दोनों नेत्र निर्मल हो गये ( च ) और ( अहं ) मैंने ( धर्मतीर्थेषु ) धर्मतीर्थों में ( स्नातः ) स्नान कर लिया।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपके पावन दर्शनों से आज मेरा शरीर पवित्र हो गया, मेरे दोनों नेत्र निर्मल हो गये तथा मैंने आज जिनदर्शन कर मानों धर्मतीर्थों में ही स्नान कर लिया है। ऐसी विशुद्ध अनुभूति मुझे हो रही है।
उपजाति नमो नमः सत्त्व-हितकराय, वीराय भव्याम्बुज-मास्कराय । अनन्त-लोकाय सुरार्चिताय, देवाधि-देवाय नमो जिनाय ।।७।।
अन्वयार्थ ( सत्वाहितंकराय ) प्राणीमात्र का हित करने वाले ( भव्यअम्बुज-भास्कराय ) भव्य रूपी कमलों को सूर्य रूप ( वीराय ) वीर जिन के लिये ( नमः नमः ) बार-बार नमस्कार हो । ( अनन्त लोकाय ) अनन्त पदार्थों को देखने वाले ( सुर अर्चिताय ) देवों के द्वारा पूजित ( देवाधिदेवाय ) देवों के भी देव ( जिनाय ) जिनेन्द्र भगवान् के लिये ( नमः ) नमस्कार हो ।
भावार्थ-समस्त प्राणियों के हितकारी, भव्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्यरूप ऐसे भगवान महावीर को बारम्बार नमस्कार है तथा जिनके पूर्ण ज्ञान में त्रिलोक के अनन्त पदार्थ युगपत् दिखाई देते हैं, जो देवों के द्वारा पूजा को प्राप्त हैं ऐसे देवों के भी देव जिनेन्द्रदेव को मेरा नमस्कार हो। स्वर्ग
नमो जिनाय त्रिदशार्चिताय, विनष्ट-दोषाय गुणार्णषाय । विमुक्ति-मार्ग-प्रतिबोधनाय, देवाधि-देवाय नमो जिनाय ।।८।। __ अन्वयार्थ--( त्रिदश अर्चिताय ) देवों से पूजित ( विनष्ट दोषाय ) नष्ट हो गए हैं दोष जिनके जो ( गुण-अर्णवाय ) गुणों के सागर हैं ऐसे