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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२२९ होगा। ज्ञान-दर्शन-चारित्र व श्रुत का ज्ञापक होने से इस निग्रंथ लिंग से जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं, केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हो, कर्मों से रहित होते हैं । कृतकृत्य हो जाते हैं, सब दुखों का अन्त करते हैं । निग्रंथ लिंग के द्वारा ही समस्त पदार्थों को जानते हैं । 'मैं श्रमण होता हूँ, संयत होता हूँ, विषय भोगों से उपरत होता हूँ , उपशांत होता हूँ। परिग्रह, निकृति/वंचना मान, माया, कुटिलता, असत्य भाषण, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र इनसे विरत होता हूँ। सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र में श्रद्धा करता हूँ। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे गये जो तत्त्व हैं उन्हीं की मैं श्रद्धा करता हूँ इस प्रकार मेरे द्वारा दिन-रात्रि की क्रियाओं में जो कोई अतिचार-अनाचार हुए हों तत्संबंधी मेरे समस्त पाप मिथ्या हों।
इच्छामि भंते ! पडिकमणाइचारमालोचेउं जो मए देवसिओ ( राइओ) अइचारो, अणाचारो, अभोगो, अण्णाभोगो, काइओ, वाइओ, माणसिओ, दुच्चरिओ, दुच्चारिओ, दुआमासिओ, दुप्परिणामिओ, णाणे, दंसणे, चरित्ते, सुत्ते, सामाइए, एयारसण्हं-पतिनाग तिराहणार, अट्ठ दिन कामासणिग्धादणाए, अण्णहा उस्सासिदेण वा, णिस्सासिदेण वा, उम्मिस्सिदेण वा, णिम्मिस्सिदेण वा, खासिदेण वा, छिकिदेण वा, जंभाइदेण वा, सुहमेहि-अंग-चलाचलेहि, दिहिचलाचलेहि, एदेहिं सव्वेहि, अ-समाहिपत्तेहिं, आयरेहि, जाव अरहताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि, ताव कायं पाव कम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।।
हे भगवन् ! वीरभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग करने की इच्छा करता हूँ। मेरे द्वारा दिन या रात्रि की क्रियाओं में अतिचार-अनाचार आभोग-अनोभोग कायिक, वाचिक, मानसिक दुश्चिंतन हुआ हो, दुश्चरित्र हुआ हो । दुर्वचनों का उच्चारण हुआ हो, खोटे परिणाम हुए हों, ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में, सूत्र में, सामायिक में, ग्यारह प्रतिमाओं की विराधना की हो, आठ कर्मों का नाश करने वाली क्रियाओं के प्रयत्न करने में, श्वासोच्छ्वास में नेत्रों की टमकार से, खाँसने से, छींकने से, जंभाई लेने से, सूक्ष्म अंगों के हलन-चलन करने से, दृष्टि को चलायमान करने से इत्यादि अशुभ क्रियाओं से सूत्रपाठ आदि क्रियाओं का विस्मरण किया हो, अन्यथा प्ररूपणा की हो, असमाधि को प्राप्त कराने वाली क्रियाओं के आचरण से जो दोष लगा