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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका पिच्छि ग्रहण करते हैं तथा करपात्र अर्थात् हाथ में एक बार भोजन करते हैं। [ क्षुल्लक थाली, कटोरा आदि में आहार करते हैं तथा ऐलक करपात्र में ही आहार करते हैं, क्षुल्लक केशलोंच करें या कैची से बालों को निकाल सकते हैं पर ऐलक के लिये केशलोंच का ही विधान है ]
एत्य मे जो कोई देवसिओ ( राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स भंते ! पडिक्कमामि पडिक्कमंतस्स मे सम्मत्तमरणं, समाहिमरण, पंडियमरणं, वीरियमरणं, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।
हे भगवन् : इस प्रक, र २५. से ग्यारह अमिता वर्मत के कलों में रात्रि या दिन में जो कोई अतिचार या अनाचार लगा हो उस दोष की शुद्धि के लिये मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। प्रतिक्रमण करने वाले मेरा सम्यक्त्वपूर्वक मरण हो, समाधिमरण हो, पंडितमरण हो, वीरमरण हो, दुःखों का क्षय हो, बोधि/रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो । जिनेन्द्र गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो।
दंसण वय सामाझ्य, पोसह सचित्त रायभत्तेय ।
बंभारंभ परिग्गह, अणुमणमुद्दिदेस विरदोय ।। १।।
एयासु जधा कहिद पडिमासु पमादाइ कयाइचार सोहणं छेदोवट्ठावणं होदुमज्झं । अरहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय सवसाहुसविणयं, सम्पत्तपुचगं, सुखदं दिव्यदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु।
[ अर्थ पूर्व में आ चुका है ]
अथ देवसिय ( राइय) पडिक्कमणाए, सव्वाइधार विसोहिणिमित्तं, पुष्याइरियकमेण पडिक्कमण पत्ति कायोत्सर्ग करोमि ।
अब ( रात्रिक ) दैवसिक प्रतिक्रमण में सर्व अतिचारों की विशुद्धि के निमित्त पूर्व आचार्यों के क्रम से मैं प्रतिक्रमण का कायोत्सर्ग करता हूँ।
[चत्तारि दण्डक पढ़कर नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करके, योस्सामि स्तव पढ़े ]
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्यसाहूणं ।।३।।