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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका २०३ सह: ) बहुत प्रश्न किये जाने पर भी जो सहन करने वाले हैं ( प्रभुः ) समर्थ हैं ( परमनोहारी ) दूसरों के मन को हरण करने वाले हैं ( पर अनिन्दया ) दूसरों की अथवा पराई निन्दा से रहित हैं ( गुणनिधिः ) गुणों के स्वामी गुणनिधि है । प्रस्पष्ट मष्ट अक्ष: ) जिनके वचन स्पष्ट और मधुर हैं ( गणी ) ऐसे संघनायक आचार्य परमेष्ठी ( ब्रूयाद् धर्मकथा ) धर्म कथा को कहें।
श्रुत मविकलं, शुद्धा वृत्तिः, पर-प्रति-बोधने, परिणति-रुरूद्योगो मार्ग-प्रवर्तन-सद्-विधौ । बुध-नुति-रनुत्सेको लोकज्ञता मृदुता-स्पृहा, यति-पति-गुणा यस्मिन् नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ।।२।।
( अविकलं श्रुतम् ) जिनका श्रुतज्ञान अथवा शास्त्रज्ञान पूर्ण है ( वृत्ति: शुद्धा ) जिनका चारित्र निदोष है ( परप्रतिबोधने परिणति ) भव्यजीवों को संबोधन करने में जिनकी परिणति है ( मार्ग प्रवर्तनसद्विधौ उद्योग: ) मोक्षमार्ग या सन्मार्ग की प्रवृत्ति कराने की समीचीन विधि में जिनका बहुत भारी उद्योग है ( बुधनुतिः ) जो पूज्य पुरुषों के प्रति नम्रीभूत हैं ( अनुत्सेक: ) अहंकार से रहित हैं ( लोकज्ञता ) जिनमें लोकज्ञता अर्थात् व्यावहारिकता है ( मृदुता ) कोमलता है ( अस्पृहा ) जो स्पृहा/( होड़-प्रतिस्पर्धा ) इच्छा से रहित हैं ( च ) और ( यस्मिन् ) जिनमें ( अन्ये ) अन्य ( यतिपति ) आचार्यों के ( गुणाः ) गुण है ( सः ) वह ( सताम् ) भव्य जीवों का ( गुरुः ) गुरु ( अस्तु ) होता है। श्रुत-जलधि- पारगेभ्यः स्व-पर
मत-विभावना-पटु-मतिभ्यः । सुचरित-तपो-निधिभ्यो,
_ नमो गुरुभ्यो गुण-गुरुभ्यः ।।१।। छत्तीस-गुण-समग्गे पंच-विहाचार-करण- संदरिसे । सिस्साणुग्गह-कुसले धम्मारिए सदा बन्दे ।।२।। गुरु-भत्ति-संजमेण य तरंति संसार-सायरं घोरं । छिण्णंति अट्ठ-कम्मं जम्मण-मरणं ण पाति ।।३।। ये नित्यं व्रत-मन्त्र-होम-निरता ध्यानाग्नि-होत्रा-कुला: षट्-कर्माभिरता-स्तपो-धन-थनाः साधु क्रियाः साधवः ।