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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका हा दुठ्ठ-कथं हा दुट्ठ-चिंतियं भासियं च हा दुई ।
अंतो अंतो उज्झमि पच्छत्तावेण वेयतो ।।५।। हाय ! हाय मैंने दुष्टकर्म किये, हाय ! हाय मैंने दुष्ट कर्मों का चिंतन किया और हाय ! हाय ! मैंने दुष्ट मर्मभेदी वचन कहे, अब मुझे अपने द्वारा किये कुत्सित कर्मों से बहुत पश्चात्ताप होता है, मेरा अन्त:करण अत्यन्त क्लेशित हो रहा है। अर्थात् मैं मन-वचन-काय से किये कुकृत कर्मों का पश्चात्ताप करता हूँ, भीतर ही भीतर खेद का अनुभव करता हूँ।
दव्ये खेत्ते काले भावे य कदाऽवराह-सोहणयं । जिंदण-गरहण-अत्तो पण-वय-कायेणपडिक्कमणं ।।६।।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से की गई किसी जीव की विराधना या प्राणपीड़ा का आत्मनिन्दा या गापूर्वक ( दोषों के चिन्तनपूर्वक ग्लानि का होना ) मन, वचन, काय की शुद्धि से परित्याग करना पडिक्कमण अर्थात् प्रतिक्रमण है।
एइंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचिंदिया पुढधिकाइया आइकाइया तेउकाइया वाउकाइया-वणप्फदिकाइया तसकाइया एदेसि उद्दावणं परिदावणं विराहणं उवधादो कदोवा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो, तस्स पिच्छा मे दुक्कडं ।
एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक इन जीवों को स्वयं वियोग रूप मारण किया हो, कराया हो, अनुमोदना की हो। इन्हीं जीवों का परितापन अर्थात् संताप किया हो, कराया हो, अनुमोदना की हो। इन्हीं जीवों का विराधन अर्थात् पीड़ा दी हो, दुखी किया हो, कराया हो, अनुमोदना की हो तथा उपघात अर्थात् जीवों को एंकदेश या सर्वदेश प्राणरहित किया हो, कराया हो, अनुमोदना की हो वह सब मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो, निरर्थक हो ।
दसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राइभत्ते य ।
बंभारंभ-परिग्गह-अणुमणुमुहिट देसविरदे य ।। १. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. प्रोषध ५. सचित्तत्याग ६.