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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका हजार संख्या ( च ) और ( पंचपदं ) पाँच मद प्रमाण ( एतत् ) इस ( श्रुतं ) श्रुत को ( नमामि ) मैं नमस्कार करता हूँ।
११२ करोड ८३ लाख ५८ हजार और ५ पद प्रमाण इस श्रुतज्ञान को मैं नमस्कार करता हूँ ।।१।।
( अरहंत भासियत्थं ) अरहंत देव द्वारा कहा गया ( गणहरदेवेहिं गंथिय सम्म ) समीचीन रूप से गणधर देवों के द्वारा गूंथित ( सुदणाणमहोवहिं ) श्रुतज्ञान रूप महासमुद्र को ( भत्तिजुत्तो ) भक्ति से युक्त हुआ ( सिरसा) सिर झुकाकर ( पणमामि ) मैं प्रणाम करता हूँ।
अरहंत देव के द्वारा कथित, गणधर देव द्वारा ग्रंथ रूप से ग्रंथित श्रुतज्ञान रूप महासमुद्र को मैं भक्ति पूर्वक सिर झुकाकर नमस्कार करता
इच्छामि भंते सुद्धभत्ति साटमाणे कओ, सम्मानोन्ने अंगोलंगपडण्णय-पाहुडय-परियम्म-सुत्त-पढमाणिओग-पुवगल-चूलिया घेव सुत्तस्यय-थुइ- यम्म-कहाइयं णिच्चकालं अच्चेमि, पुण्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहिमरणं-जिण-गुण-संपत्ति होउ मज्झं।
अन्वयार्थ-( भंते !) हे भगवन् ! ( सुदभक्तिकाउस्सग्गो कओ ) श्रुतभक्ति का कायोत्सर्ग किया ( तस्स ) उसकी ( आलोचे3 ) आलोचना करने की ( इच्छामि ) इच्छा करता हूँ। श्रुतज्ञान के जो ( अंग उवंग पइण्णए ) अंग-उपांग-प्रकीर्णक ( पाहुडय परियम्म सुत्तपढमाणि ओग पुनगय चूलिया चेव ) प्राभृतक, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ( सुतत्थयथुइ, धम्मकहाइयं ) सूत्रार्थ, स्तुति धर्मकथा आदि हैं, मैं उनकी ( णिच्चकालं ) नित्यकाल हमेशा ( अच्चेमि ) अर्चना करता हूँ, ( पूज्जेमि ) पूजा करता हूँ ( वंदामि ) वन्दना करता हूँ ( णमस्सामि ) नमस्कार करता हूँ ( मज्झं ) मेरे ( दुक्खक्खओ) दुखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) सब कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रय की प्राप्ति हो, ( सुगइगमणं ) सुगति की प्राप्ति हो, ( समाहिमरणं ) समाधिमरण की प्राप्ति हो और ( जिनगुणसंपत्ति ) जिनेन्द्र देव के अनन्त गुणों की संपति ( होउ ) प्राप्त हो ।