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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
१०१ समणुमण्णिदो ) करते हुए की अनुमोदना की हो ( वा ) अथवा ( काले ) काल में आगम का स्वाध्याय किया हो, ( परिहाविदो ) आगम में कथित गोसर्गिकादि काल में स्वाध्याय नहीं किया हो ( अच्छाकारिदं ) श्रुत का जल्दी-जल्दी उच्चारण किया हो ( मिच्छामेलिदै ) किसी अक्षर या शब्द को किसी अक्षर या शब्द के साथ मिलाया हो ( वा ) अथवा ( आमलिंदं ) शास्त्र के अन्य अवयव को किसी अन्य अवयव के साथ जोड़ा हो ( मेलिदं ) उच्च्वनि युक्त पाठ को नीच ध्वनि युक्त पाठ के साथ, नीच ध्वनियुक्त पाठ को उच्च ध्वनि युक्त पाठ के साथ जोड़कर पढ़ा हो ( अपणहादिण्णं ) अन्यथा कहा हो । आपणहापडिच्छदं ) अन्यथा ग्रहण किया ( आवासएसु परिहीणदाए ) छह आवश्यक क्रियाओं में परिहीनता/कमी करके ज्ञानाचार का परिहापन किया हो ( तस्स ) तत्संबंधी ( मे ) मेरे ( दुवकर्ड ) दुष्कृत ( मिच्छा ) मिथ्या हो।
दंसणायारो अट्ठविहो हिस्संकिय णिकंक्खियणिधिदिगिच्छा अमूढदिट्ठीय ।
उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल- पहावणा चेदि ।।१।। दसणायारो अवधिहो परिहाविदो, संकाए, कंखाए, विदिगिंछाए, अण्ण-दिट्ठी पसंसणाए, परपाखंड-पसंसणाए, अणायदण-सेवणाए, अवच्छल्लदाए, अपहावणाए, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।। २।।
__ अर्थ-दर्शनाचार के निम्न आठ भेद हैं—(णिस्संक्रिय ) नि:शंकित ( णिकंक्खिय ) नि:कांक्षित ( णिचिदिगिछो ) निर्विचिकित्सा ( अमूढदिट्ठीय ) अमूढदृष्टि ( उवगृहण ) उपगूहन ( ठिदिकरणं ) स्थितिकरण ( बच्छल्ल) वात्सल्य ( च ) और ( पहावणा) प्रभावना ( इदि ) इस प्रकार ।
अन्धयार्थ-( दंसणायारो अट्ठविहो ) आठ प्रकार के दर्शनाचार के विपरीत आठ दोष हैं-( संकाए ) शंका से ( कंखाए ) कांक्षा से ( विदिगिंछाए ) विचिकित्सा से ( अण्णदिट्टि पसंसणदाए ) अन्यदृष्टि प्रशंसा से ( परपाखांड पसंसणदाए ) पर पाखांडियों की प्रशंसा से ( अणायदणसेवणदाए ) छह अनायतनों की सेवा से ( अवच्छल्लदाए ) साधींजनों में प्रीति न करने रूप अवात्सल्य से ( अप्पहावणदाए ) पूजा,