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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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से विरति चतुर्थ ब्रह्मचर्य अणुव्रत मे स्थूल ब्रह्मचर्य पालन अर्थात् स्वस्त्री में संतोष और परस्त्री सेवन से विरति ।
श्रावक के १२ व्रतों में ३ गुणवत
तत्य इमाणि तिणि गुपाव्वदाणि तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसि विदिसि पच्चक्खाणं, विदिये, गुणव्यदे, विविध अणत्य- दंडादो वेरमणं, तिदिये गाव भोगोपभोग परिसंखाणं चेदि, उनेाणि तिष्णि गुणव्वदाणि ।
अर्थ - श्रावक के बारह व्रतों में ये तीन गुणव्रत हैं..... उनमें पहले गुणव्रत दिव्रत में दिशा और विदिशा में प्रत्याख्यान है, दूसरे अनर्थदण्डव्रत नामक गुणव्रत में विविध अनर्थदण्डों अर्थात् अप्रयोजनीय कार्यों से विरति है, और तीसरे भोगोपभोगपरिसंख्यापरिमाण नामक गुणव्रत में भोग और उपभोग की वस्तुओं की संख्या का नियत परिमाण हो जाता है, इत्यादि ये तीन गुणव्रत हैं ।
श्रावक के १२ व्रतों में ४ शिक्षाव्रत
तत्य इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि तत्य पढमे सामाइयं, विदिये पोसहोवासयं, तिदिये अतिथि संविभागो, चडत्ये सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणा मरणं चेदि । इच्वेदाणि तिणि गुणव्वदाणि ।
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अर्थ-उन १२ व्रतों में ये चार शिक्षाव्रत हैं, उनमें पहला शिक्षाव्रत सामायिक, दूसरा प्रोषधोपवास, तीसरा अतिथिसंविभाग, चौथे शिक्षानत में अन्तिम में सल्लेखनापूर्वक मरण और तीसरा अभ्रावकाश योग का है अर्थात् खुले मैदान में गर्मी, सर्दी, वर्षा सम्बंधी उपसर्गों परीषहों का सहन
करना ।
चार शिक्षाव्रतों का वर्णन
तत्य इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि तत्य पढमे सामाइयं, विदिये पोसहोवासयं, तिदिये अतिथि संविभागो, चडत्ये सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणा - मरणं चेदि । इच्वेदाणि असारि सिक्खावदाणि ।
से अभिमद - जीवाजीव उवलद्ध- पुण्ण- पाव आसव-बंध-संवरणिज्जर- मोक्ख- महि- कुसले, धम्माणु-रायरत्तो, पेम्माणुराय-रत्तो, अद्वि
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