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विमान ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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महापुरुषों से पूज्य, अभिवन्दनीय ( जिनं ) घातिया कर्मरूप शत्रुओं को जीतने से जिन और ( स्वान्त कषाय-बन्धम्-जित ) अपने विभाव परिणाम स्वरूप कषायों को जीतने से जो "जित" हैं ( चन्द्रप्रभं ) चन्द्रमा की कान्तिसम कान्ति के धारक चन्द्रप्रभ भगवान् की ( वन्दे ) मैं वन्दना करता हूँ ।
यस्याङ्गलक्ष्मी परिवेशभिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बाह्यं बहुमानसंच, ध्यान- प्रदीपातिशयेन भिन्नम् ।। २ । ।
अन्वयार्थ - - ( यस्य ) जिनके ( अङ्गलक्ष्मीपरिवेशभित्रम् ) शारीरिक सौन्दर्य रूप बाह्य लक्ष्मी रूप दिव्य प्रभामंडल से विदारित ( बहुबाह्य तम: ) बहुत सारा बाह्य अन्धकार (च ) और ( ध्यानप्रदीप अतिशयेन ) शुक्लध्यानरूप दीपक के अतिशय से ( भित्रम् ) विदारित ( बहुमानस तमः ) बहुत सारा मानसिक अज्ञान अन्धकार ( तमोरे ) सूर्य की ( रश्मिभिन्नम् ) किरणों से विदरित ( तम इव ) अन्धकार के समान ( ननाश ) नष्ट हो गया था ।
स्वपक्ष सौस्थित्यमदावलिप्ता, वासिंह, नादैर्विमदा बभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मदार्द्रगण्डा, गजा यथा केसरिणो निनादैः । । ३ । ।
अन्वयार्थ - ( यथा ) जिसप्रकार ( केसरिणः निनादैः ) सिंह की गर्जनाओं से ( मदार्द्रगण्डा गजा) मद से गीले हैं गण्डस्थल जिनके ऐसे हाथों ( विमदा ) मदरहित हो जाते हैं ( तथा ) उसी प्रकार ( यस्य ) जिनके ( वाक्सिंहनादैः ) वचन रूपी सिंह गर्जना के द्वारा ( स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ता: ) अपने पक्ष की सुस्थिति के घमण्ड से गर्मीले ( प्रवादिनः ) प्रवादी जन ( विमदा ) मद रहित ( बभूवुः ) हो जाते थे । अर्थात् – चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की वाणी रूप सिंहनाद से प्रवादीरूप गर्वीले हाथियों का मद चूर हो गया था ।
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यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाद्भुत कर्मतेजाः । अनन्त धामाक्षरविश्व चक्षुः, समस्त दुःख क्षय शासनश्च ।।४।।
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अन्वयार्थ - ( यः ) जो ( सर्वलोके ) तीन लोक में ( परमेष्ठितायाः ) परमेष्ठी के ( पर्द) स्थान ( बभूव ) हुए थे | ( अद्भुत कर्मतेजाः ) तीव्र