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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
१९१ चक्रेण यः शत्रुभयंकरेण, जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिवक्रेण पुनर्जिगाय, महोदयो दुर्जय-मोह चक्रम् ।।२।।
अन्वयार्थ ( महोदयः ) गर्भावतरण आदि पंचकल्याणक रूप अभ्युदयों से सहित होने से महोदय थे ऐसे ( य: ) जो शान्तिनाथ स्वामी गृहस्थावस्था में ( शत्रुभयंकरण ) शत्रु वर्ग में भय को उत्पन्न करने वाले ( चक्रेण ) चक्र के द्वारा ( सर्वनरेन्द्र चक्रं ) समस्त राजाओं के समूह को ( जित्वा ) जीतकर ( नृपः ) पंचम चक्रवर्ती हुए । ( पुन: ) पश्चात् मुनि अवस्था में वीतराग
अवस्था को प्राप्त होकर ( समाधिचक्रेण ) शुक्लध्यानरूपी चक्र के द्वारा जिन्होंने ( दुर्जयमोहचक्रं ) अत्यंत कठिनाई से जीतने योग्य ऐसे दर्शनमोह व चारित्र मूल उत्तरप्रकृतियों के समूह को ( जिगाय) जीता था। [ ऐसे घातिया कर्मों के क्षय करने वाले शान्तिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति की गई है ]
राजश्रिया राजसुराजसिंहो, रराजयो राजसु भोगतन्त्रः । आर्हन्त्य-लक्ष्म्यापुन-रात्मतन्त्रो, देवासुरोदार-सभेरराज ।।३।।
अन्वयार्थ ( राजसिंहः ) राजाओं में श्रेष्ठ चक्रवर्ती ( राजसुभोग तन्त्रः ) राजाओं के उत्तम भोग के अधीन ( यः ) जो शान्तिनाथ जिनेन्द्र ( गृहस्थावस्था में ) ( राजसु राजश्रिया ) अनेक राजाओं के मध्य चक्रवर्ती की सम्पदा नौ निधि चौदह रत्न आदि से ( रराज ) सुशोभित थे ( पुनः ) पश्चात् वीतरागी संयम अवस्था में ( आत्मतन्त्रः ) आत्मा के अधीन होते हुए ( देवासुरोदारसभे ) देव, असुर आदि की विशाल सभा में अर्थात् समवशरण सभा में ( आर्हन्त्यलक्ष्म्या ) अर्हन्त पद के योग्य समवशरण, अष्ट प्रातिहार्य आदि बहिरंग तथा अनन्तचतुष्टय रूप अन्तरंग विभूति से ( रराज ) सुशोभित हुए थे।
यस्मिन्नभूबाजनि राजचक्रं, मुनौ दया-दीधिति-धर्म-चक्रम् ।
पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्र, ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्त-चक्रम् ।।४।। __ अन्वयार्थ-( यस्मिन् ) जिन शान्तिनाथ जिनेन्द्र के ( राजनि ) चक्रवर्ती पद पर आसीन होने पर ( राजचक्रं ) राजाओं का समूह ( प्राञ्जलि अभूत् ) अञ्जलीबद्ध हुआ था, ( मुनौं ) उन्हीं शान्तिनाथ भगवान् के मुनि होने पर ( दयादीधितिधर्मचक्रम् ) दयारूपी किरणों से युक्त उत्तम क्षमादि दस धर्मों अथवा रत्नत्रय धर्मों का समूह ( प्राञ्जलि ) उनके आधीन हुआ