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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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दीक्षा के लिये एक उपवास करके मारणा करे पश्चात् एक दिन के अन्तराल से ऐसा करते हुए किसी निमित्त से षष्ठोपवास हो गया। फिर एक षष्ठोपवास वाले के अष्टमोपवास हो गया। इस प्रकार दसम द्वादशम आदि क्रम से नीचे न गिरकर जो जीवनपर्यंत विहार करता है। वह अवस्थित उग्रतप का धारक कहा जाता है । इस तप का उत्तम फल मोक्ष ही हैं ।
२६. णमो दित्ततवाणं दीप्ततप ऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो । दीप्ति का कारण होने से तप को दीप्त कहते हैं । दीप्त हैं तप जिनका वे दीप्त तप हैं । चतुर्थ व छट्टम आदि उपवासों के करने पर जिनका शरीरगत तेज तपजनित लब्धि के माहात्म्य से प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ता जाता है वे ऋषि दीप्त तप कहलाते हैं उन्हें नमस्कार हैं ।
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एक मो तता-प्रण अडिधारकों को नमस्कार हो । जिनके तप के द्वारा मल-मूत्र शुक्रादि तप्त अर्थात् नष्ट कर दिया जाता है, वे उपचार से तप्ततप कहलाते हैं। और जिनके द्वारा ग्रहण किये हुए चार प्रकार के आहार का तपे हुए लोहपिंड द्वारा आकृष्ट पानी के समान नीहार नहीं होता हैं वे तप्ततप ऋद्धिधारक जिन हैं ।
२८ णमो महातवाणं — महातप ऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो । महत्व के हेतुभूत तप को महान् कहते हैं, वह जिनके होता है वे महातप ऋषि हैं। वे महातपधारक अणिमादि आठ, जलचारण आदि आठ गुणों से सहित, प्रकाशमान शरीरयुक्त, दो प्रकार अक्षीण ऋद्धिधारक सर्वौषधिरूप, समस्त इन्द्रों से अनन्तगुणा बलधारी, आशार्विष- दृष्टिविषऋद्धि धारक, तप ऋद्धि से युक्त व समस्त विद्याधारी होते हैं। मति श्रुत, अवधि मन:पर्ययज्ञान से त्रिलोक के व्यापार को जानने वाले होते हैं। ऐसे महातप ऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो ।
२९. पामो घोरतवाणं- घोर तपधारी ऋद्धि जिनों को नमस्कार हो । अनशन आदि बारह तपों में मास का उपवास, अवमौदर्य में एक ग्रास, वृत्तिपरिसंख्यान में चौराहे में भिक्षा की प्रतिज्ञा, रस परित्यागों में उष्ण जलयुक्त ओदन का भोजन, विविक्तशय्यासनों में वृक, व्याघ्र आदि