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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भगवन् ! मेरे द्वारा जो भी राग-द्वेष-मोह के वश से स्वयं जीवों के प्राणों को घात किया गया हो, अन्यों के द्वारा प्राणों का घात करवाया गया हो अथवा अन्यों के द्वारा प्राणों का घात किया जाने पर उसकी अनुमोदना की गई हो तो मैं उन सबका त्याग करता हूँ।
यह जो निग्रंथ का रूप है पावन है, अथवा प्रवचन में प्रतिपादित है, अनुत्तर है अर्थात् इससे भिन्न कोई उत्कृष्ट रूप नहीं है, केवलि भगवन्तों से प्रणीत है, अहिंसा धर्मरूप लक्षण का धारक है, सत्य से अधिष्ठित है, विनय का मूल है, क्षमा जिसका बल है, अथवा क्षमा से बलिष्ठ है, अठारह हजार शीलों से परिमंडित है, चौरासी लाख उत्तरगुणों से अलंकृत हैं, नव प्रकार ब्रह्मचर्य से सुरक्षित है, निवृत्ति रूप लक्षण से युक्त है, बाह्यआभ्यंतर परिग्रह के त्याग का फल है, क्रोधादि कषायों की उपशमता रूप होने से उपशम की जहाँ प्रधानता है, क्षमा के मार्ग का उपदेशक है, मोक्षमार्ग का प्रकाशक है अर्थात कर्मों की एकदेश निर्जरा का प्रकाशक है, सिद्धिमार्ग अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा या अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति के हेतु यथाख्यातचारित्र का परम प्रकर्ष है। ऐसे इस परम धर्म का क्रोध से, या मान से, या माया से या लोभ से या अज्ञान से या अदर्शन से या शक्ति से या असंयम से या, असाधुत्वपन से या अनधिगम से या अविचार, अबोध, राग, द्वेष, मोह, हास्य, भय, प्रकृष्ट द्वेष, प्रमाद, प्रेम, विषयों की गृद्धि, लज्जा, गारव, अनादर, आलस्य, कर्मबोझ कर्म प्रदेशों की बहुलता, कर्मों की शक्ति की बहुलता, कर्मों की दुश्चरित्रता, कर्मों की अत्यंत तीव्रता तीन गारव के भार से, श्रुत की अल्पता/पूर्ण शास्त्रज्ञान की अप्रवीणता, परमार्थज्ञान का अभाव इन सब कारणों में से किसी भी कारण से पूर्व में जो दुश्चरित्र हुआ है उसकी गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, प्रतिक्रमण से निराकरण करता हूँ क्योंकि आगामी दोषों का निराकरण प्रतिक्रमण से नहीं होता है, कृत दोषों का निराकरण करने में प्रतिक्रमण ही समर्थ है । भावी दोषों का निराकरण प्रत्याख्यान से होता है अत: भावी दोषों के कारण राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति के निराकरण के लिये मैं प्रत्याख्यान करता हूँ अत: मैं अनालोचित की आलोचना करता हूँ, अनिन्दित की निन्दा करता हूँ, अगर्हित की मीं करता हूँ, जिसका मैंने अभी तक प्रतिक्रमण नहीं किया उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।