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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टोका
१६९ अन्वयार्थ ( भंते ! ) हे भगवन् ! ( अहावरे ) अब ( छठे अणुव्वदे ) छठे अणुव्रत में (तिविहेण मणसा-वचसा-काएण) मन से, वचन से, काय से, तीनों प्रकार से ( सल्लं राइभोयणं) सब प्रकार रात्रिभोजन को ( पच्चक्खामि ) मैं त्यागता हूँ । ( से ) उस रात्रिभोजन त्याग छठे आणुव्रत में ( असण वा ) अशन या ( पाणं वा ) पान या ( खादियं वा ) खाद्य या ( सादियं वा) स्वाद्य या ( कडुयं वा ) कटुक या ( कसायं वा) कसैला या ( आमिलं ) खट्टा या ( महुरं वा ) मधुर या ( लवणं वा) क्षार/खारा ( अलवणं वा ) क्षाररहित या ( सचित्तं वा ) सचित्त या ( अचित्तं वा ) अचित्त या ( तं-सच्वं-चउब्विहं आहारं ) उस चारों प्रकार के आहार को ( णेव सयं रत्तिं भुजिज्ज ) स्वयं रात्रि को न खावे ( णो अण्णेहिं ) न दूसरों को ( रत्तिं भुंजाविज्ज ) रात्रि में खिलावे ( णो अण्णेहिं रतिं भुजिज्ज पि समणुमणिज्जि ) न अन्य को रात्रि में खाने वालों की अनुमोदना करे ( भंते ! ) हे भगवन् ! (तस्स ) उस छठे अणव्रत में लगे ( अइचारं ) अतिचारों का ( पडिक्कमामि ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ( जिंदामि ) निन्दा करता हूँ ( गरहामि ) गर्दा करता हूँ ( अप्पाणं वोस्सरामि ) आत्मा से उनका त्याग करता हूँ।
भावार्थ—हे भगवन् ! षष्ठम ( छठे ) अणुव्रत में सब प्रकार रात्रिभोजन का त्रिविध मन-वचन-काय से जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करता हूँ। उस रात्रि-भोजन विरति में क्षति के कारण अशन, पान, खाद्य, स्वाद, कटुक, करेला, आमिला, खट्टा, मधुर/मीठा, लवण/खारा, सचित्त और अचित्त सब प्रकार के चतुर्विध आहार को मैं स्वयं रात्रि में नहीं खाऊँगा, न अन्य को रात्रि में खिलाऊँगा और न रात्रि में खाते हुए अन्य का अनुमोदन करूँगा।
हे भगवन् ! छठे अणुव्रत रात्रिभोजन विरति में जो भी अतिचार लगे हैं मैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। अपनी निन्दा और गर्दा करता हूँ। मेरे द्वारा जो राग-द्वेष-मोह के वश हो चार प्रकार का आहार रात्रि में स्वयं खाया गया हो, दूसरों को रात्रि-भोजन खिलाया गया हो या रात्रि में भोजन करते हुए किसी की अनुमोदना की गई हो, उसका मै त्याग करता हूँ।
। शेष अर्थ प्रथम महाव्रत में देखिये ]