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विमल झान प्रबोधिनी टीका
११९ प्रकार १२ प्रकार के संयमों में । बावीस प्रकार के परीषहों में। अहिंसा आदि व्रतों को स्थिर रखने की २५ भावनाओं में । २५ प्रकार की क्रियाओं में। १८ हजार शीलों में, ८४ लाख उत्तरगुणों में और अठाईस प्रकार के मूलगुणों यति आचारों में, आठ दिन, पन्द्रह दिन, चातुर्मास, एक वर्ष के अनुष्ठानों में मैंने जो भी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, कापोतलेश्या के वश से पूजा, ख्याति की अभिलाषा से अतिप्रकट अनुष्ठान करने रूप आभोग, लज्जा आदि के वश से लोक में अप्रकट रूप अनुष्ठान करने रूप अनाभोग आदि जो किया है उस सब क्रिया का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ___मेरे द्वारा अतिक्रम, व्यतिक्रम, आभोग. अनाभोग आदि दृषित क्रिया का प्रतिक्रमण कर निर्दोष व्रतानुष्ठान करने से मेरा सम्यक्त्व सहित मिथ्यात्व रहित मरण हो, समाधिमरण हो, भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन रूप पंडित मरण, भय रहित वीर मरण हो, दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो।
लघु-सिद्ध भक्ति नमोऽस्तु सर्वातिचार-विशुञ्जयर्थ सिद्ध-भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
अर्थ—हे भगवन् ! नमोस्तु/नमस्कार हो, मैं सब अतिचारों की विशुद्धि के लिये सिद्ध-भक्ति संबंधी कायोत्सर्ग करता हूँ
[ कायोत्सर्ग] सम्मत्त-णाण-दसण-वीरिय-महुमं तहेव अवगहणं । अगुरु-लघु-मव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं ।।१।। तवसिद्धे, णयसिद्ध संजममिद्धे चरित्तसिद्धे य। णाणम्मि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णमंसामि ।। २।।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! सिद्धत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाणसम्मदंसण-सम्मचरित्त-जुताणं, अविहकम्मविष्पमुक्काणं, अवगुणसंपण्णाणं, उलोय- मत्थयम्मि पडिपाणं तवसिद्धाणं, णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं,