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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका इन्द्रान् ) ऋषिगणों को ( गणेशानपि ) तथा गणधर देवों की ( तद्-गुणाप्त्यै ) मैं उनके गुणों को प्राप्त करने के लिये ( स्तुवे ) स्तुति करता हूँ। नृ-सुर-खचर-सेव्या विश्व-श्रेष्ठदि-भूषा,
विविध-गुण-समुद्रा मार मातंग सिंहाः । भव-जल-निधि-पोता वन्दिता मे दिशन्तु,
मुनि-गण-सकला: श्री-सिद्धिदाः सदृषीन्द्राः ।।१०।। अन्वयार्थ ---( नृसुरखचरसेव्या ) मनुष्य, देव, विद्याधरों से पूज्य ( विश्वश्रेष्ठ ऋद्धिः मूषा ) समस्त श्रेष्ठ ऋद्धियों से भूषित ( विविध गुण समुद्रा ) अनेक गुणों के समुद्र ( मार-मातङ्गसिंहा ) कामदेवरूपी हाथी को वश में करने के लिये सिंह समान ( भवजलनिधिपोता ) संसाररूप समुद्र को पार करने के लिये जहाज ( सदृशा ) समान, ( वन्दिता ) वन्दना किये गये ( मुनिगणसकला: इन्द्रा ) समस्त मुनि समूह/संघ के इन्द्र गणधर देव ( मे सिद्धिदा: दिशन्तु ) मुझे सिद्धपद प्रदान करने वाले हों।
'नित्यं यो गणभृमन्त्र, विशुद्धसन् जपत्यमुम् , आस्रवस्तस्य पुण्यानां, निर्जरा पापकर्मणाम् । नश्यादुपद्रवकश्चिद, व्याधिभूत विषादिभिः ,
सदसत् वीक्षणे स्वप्ने, समाधिश्च भवेन्मृतो ।। ( य: ) जो ( नित्यं ) प्रतिदिन ( विशुद्धः सन् ) शुद्ध मन होता हुआ/शुद्धिपूर्वक ( अमुम् ) इस ( गणभृन्मन्त्रं ) गणधर वलय मन्त्र को { जपति ) पढ़ता है ( तस्य ) उसको ( पुण्यानां आस्रव ) पुण्यकर्मों का आस्रव होता है तथा ( पापकर्मणां निर्जरा ) पापकर्मों की निर्जरा होती है ( विषादिभिः व्याधिभूत ) विष आदि से होने वाले रोग, पिशाच आदि ( उपद्रव: ) बाधा ( नश्यात् ) दूर होते हैं ( स्वप्ने सत् असत् वीक्षणे ) स्वप्न में शुभ-अशुभ दिखाई देता है ( च ) और ( मृतौ ) मरण समय में ( समाधिः ) समाधिमरण ( भवेत् ) होता है।
प्रतिक्रमण-दण्डक णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झामाणं णमो लोए सव्यसाहूणं ।।१।। १. आ० विद्यानन्द जी को प्राप्त हस्तलिखित प्रति से।
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