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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका रत्तीए वा, क्यिाले वा, अचक्खुविसए, अवत्यंडिले, अब्भोवयासे, सणिन्छे, सवीए, सहरिए, एवमाइयासु, अप्यास गट्टाणेसु, पइट्ठावंतेण, पाणभूद-जीव-सत्ताणं, उवघादो, कदो वा कारिदो या, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो सस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।११।।
अन्धधार्थ-(तत्य । उन समितियों में ( उच्चार-पस्सवण-खेलसिंहाणय-वियडि-पइट्ठावणिया समिदी ) प्राणी पीड़ा परिहार रूप प्रतिष्ठापना समिति में उच्चार, प्रस्रवण, श्वेल, सिंहाणक, विकृति इन वस्तुओं के त्यागने में प्रमादवश ( रत्तीए वा ) रात्रि में या ( वियाले वा ) संध्या-काल में या ( अचक्खुविसये अवत्थंडिले ) चक्षु से देखने में न आवे ऐसे असंस्कारित या संस्कारित अप्रासुक उच्च भूमि प्रदेश में या नीच अप्रासुक भूमि प्रदेश में ( अब्भोवयासे ) अभावकाश-पानी वृक्ष आदि से अप्रच्छादित अप्रासुक खुले आकाश प्रदेश यह उपलक्षण मात्र हैं, इससे वृक्षादि से अप्रच्छादित और अप्रासुक खुले स्थान का ही ग्रहण होता है, उसमें ( सणिद्धे ) स्निग्धआर्द्र, कोमल भूमि प्रदेश में ( सीये सहरिए ) बीज सहित हरितकाय युक्त भूमि प्रदेश में ( अप्पासुगट्ठाणेसु ) अप्रासुक भूमि प्रदेशों में ( पइट्ठावंतेण ) मल-मूत्र आदि का क्षेपण करते हुए मैंने ( पाण-भूद-जीव-सत्ताणं ) विकलेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, पञ्चेन्द्रिय और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु कायिक जीवों का ( उवघादो ) उपघात ( कदो वा ) किया हो या ( कारिदो वा ) कराया हो या ( कीरंतो वा समणुमण्णिदो ) अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो तो ( तस्स ) उस प्रतिष्ठापना समिति सम्बन्धी ( मे दुक्कड़ ) मेरे पाप (मिच्छा ) मिथ्या हों।
मन गुप्ति सम्बन्धी दोषों की आलोचना तिष्णि-गुत्तीओ,मण-गुत्तीओ, वधि-गुत्तीओ, काय-गुत्तीओ चेदि । सत्य मण-गुत्ती, अट्ट झाणे, रुहे झाणे, इह-लोय-सराणाए, पर-लोएसपणाए, आहारसपणाए, भय- सण्णाए, मेहुण-सपणाए, परिग्गहसण्णाए, एवमाझ्यासु जा मण-गुत्ती, ण रक्खिया, ण रक्खाविया, ण रक्खिज्जतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।१२।। __अन्वयार्थ ( तिपिण-गुत्तीओ ) गुप्तियाँ तीन हैं—(मणगुत्तीओ, वचिगुत्तिओ, कायगुत्तीओ च इदि ) मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति