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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका आभ्यंतर परिग्रह ( णाणावरणीयं ) ज्ञान का आवरण करने वाला ज्ञानावरणी ( दसणावरणीयं ) दर्शन का आवरण करने वाला दर्शनावरणीय है ( वेयणीयं ) सुख-दुख का वेदन कराने वाला वेदनीय हैं, ( मोहणीयं ) मोहित करने वाला कर्म मोहनीय है, ( आउग्गं ) नरक-तिर्यंच आदि भवों को प्राप्त कराने वाला आयु कर्म ( णामं ) जो आत्मा को नमाता है वह नाम कर्म है ( गोदं ) उच्च-नीच कुल में उत्पन्न करने वाला गोत्र कर्म है ( च ) और ( अंतरायं ) दाता और पात्र के बीच में आ जाता है वह अन्तराय कर्म है ( इदि ) इस प्रकार ( अट्टविहो ) आठ प्रकार ( सत्य ) उन दोनों परिग्रहों के मध्य में ( बाहिरो परिग्गहो ) बाह्य परिग्रह ( उवयरण ) उपकरणउपकरण दो प्रकार के है-ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण । ज्ञानोपकरण पस्तकादि और संयमोपकरण पिच्छिका आदि । ( भंड ) भाजन-औषध, सेल आदि द्रव्य के भाजन, ( फलह ) फलक-सोने के लिये पाय रहित फड काष्ठ, आदि, ( पीढ ) बैठने का पाटा, चौकी आदि, ( कमण्डलु ) कमण्डलु ( संथार ) काष्ठ तृण आदि का संस्तर ( सज्ज उवसेज्ज ) शय्या वसतिका, उपशव्या देवलिका आदि ( भत्तपागादि) चावल आदि भोजन तथा दृध, छाछ आदि पेय पदार्थ आदि { भेदेण ) भेद से ( अणेयविहो ) परिग्रह अनेक प्रकार का है ( एदेण परिग्गहेण ) इस प्रकार पूर्व में कथित प्रकार से परिग्रह ( अट्ठविह कम्मरयं ) आठ प्रकार का कर्म है वह कर्म ही शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति में मलिनता का हेतु होने से बह रज है, उस कर्म रज को प्रकृति, प्रदेश आदि रूप ( बर्द्ध ) मैंने स्वयं बाँधा हो ( बद्धावियं ) अन्य से बँधवाया हो ( बज्झन्तं वि समणमणिदो ) और बाँधते हुए अन्य को अनुमोदना की हो ( तस्स ) उस बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से उपार्जित ( मे ) मेरा ( दुक्कडं ) दुष्कृत पाप ( मिच्छा ) मिथ्या हो ।
छठा अणुव्रत रात्रि भोजन सम्बन्धी दोषों की आलोचना
अहावरे छठे अणुव्वदे राइ - भोयणादो रमणं से असणं, पाणं, खाइयं, साइयं चेदि । चविहो आहारो से तित्तो वा, कडुओ वा, कसाइलो वा, अमिलो वा, महुरो वा, लवणो वा, अलवणो वा, दुञ्चितिओ, दुम्मासिओ, दुष्परिणामिओ, दुस्समिणिओ, रत्तीए भुत्तो, भुंजावियो, भुजिजजंतो वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।६।।