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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका उस ब्रह्मचर्य महाव्रत में ( देविएस वा ) देवियों या ( तेरिच्छिएस वा ) तिर्यंचनियों के या ( अचेयणिएस वा ) अचेतनस्त्रियों के या (मगुण्णा मणुष्णेसु) मनोज्ञ अमनोज्ञ ( रूवेसु) रूपों में ( मणुणामणुणेसु सद्देसु ) मनोज़-अमनोज्ञ शब्दों में, ( मणुष्णामगुण्णेस गंधेसु) मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंधों में (मण्णा मण्सु रसंसु ) मनोज्ञ अमनोज्ञ रसों में ( मणुष्णामगुण्णेसु फासेस) मनोज्ञ - अमनोज़ स्पर्श में ( चक्खिदिय - परिणामे ) चक्षु इन्द्रिय के परिणाम में ( सोदिदियपरिणामे ) श्रोत्रेन्द्रिय परिणाम में ( घाणिदियपरिणामे ) प्राण इन्द्रिय के परिणाम में ( जिब्मिदियपरिणामे ) जिह्न इन्द्रिय के परिणाम में ( फासिंदिय परिणामे ) स्पर्शन इन्द्रिय के परिणाम में ( गो इंदिन परिणामे ) नो इंद्रिय ( मन ) के परिणाम में ( अगुत्तेण ) मन-वचन काय का संवरण न कर और ( अगुत्तिदिए ) इन्द्रियों को वश में न रखकर मैंने जो ( पावविहं बंभचरियं नौं प्रकार के ब्रह्मचर्य की ( ण रक्खियं ) रक्षा नहीं की हो ( ण रक्खात्रियं ) न रक्षा कराई हो और ( ण रक्खिज्जतो वि समणुमणिदो ) न रक्षा करने वालों की सम्यक् प्रकार अनुमोदना की हो ( तस्स ) उस नव प्रकार के ब्रह्मचर्य के रक्षण संबंधी (मे) मेरा ( दुक्कडं ) दुष्कृत (मिच्छा) मिथ्या हो ।
अपरिग्रह महाव्रत के दोषों की आलोचना
अहावरे पंचमे महददे परिग्गहादो वेरमणं सो वि परिग्गहो दुविहो अब्भंतरो बाहिरो चेदि । तत्थ अब्भंतरो परिग्गहो णाणावरणीयं, दंसणावरणीयं, वेयणीयं, मोहणीयं, आउग्गं, णामं गोदं, अंतरायं वेदि अडुविहो । तत्थ बाहिरो परिग्गहो उवयरण- भंड-फलह- पीठ - कमण्डलुसंथार- सेज्ज उवसेज्ज, भत्तपाणादि भेदेण अणेयविहो, एदेण परिग्गहेण अट्ठविहं कम्मरयं बद्धं बद्धावियं, बज्झन्तं वि समणुमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । । ५ ।।
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अन्वयार्थ - ( अहावरे ) अब अन्य ( पंचमे महत्वदे ) पाँचवें परिग्रह त्याग महाव्रत में (परिग्गहादो ) परिग्रह से ( वेरमणं ) विरक्त, विरमण करना चाहिये । ( सो ) वह ( परिग्गहो ) परिग्रह (वि) भी ( दुविहो ) दो प्रकार का है ( अब्भंतरो ) आभ्यंतर (च ) और ( बाहिरो ) बाह्य ( इदि ) इस प्रकार । ( तत्थ ) उस दो प्रकार के परिग्रह के मध्य ( अब्धंतरो परिग्गहो )