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विमल ज्ञान प्रथिनी टोका ६७ निष्फल हो। मैं अपने पापों का प्रक्षालन, निराकरण करने के लिये ही प्रतिक्रमण करता हूँ ।
इस प्रकार उपर्युक्त एक से तैतीस संख्या पर्यन्त अपने व्रतों में होने वाली समस्त अत्यासादनाओ संबंधी दोषों की निंदा, गह, आलोचना करता हूँ । मेरे समस्त पाप मिश्या हो ।
भावार्थ - इस प्रकार उपर्युक्त प्रकार से एक से तैंतीस संख्या पर्यन्त अपने व्रतों में होने वाले अत्यासना आदि रूप दोष की मैं निंदा, गर्हा, आलोचना करता हूँ मेरे समस्त पाप मिथ्या हो ।
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इच्छामि भंते ! इमं णिग्गंथं पवयणं अणुत्तरं केवलियं, पडिपुण्णं, गाइयं, सामाइयं, संसुद्धं, सल्लधट्टाणं, सल्लघत्ताणं, सिद्धिमग्गं, सेडिमग्गं, खंतिमग्गं, मुक्तिमग्गं, पमुत्तिमग्गं, मोक्खमग्गं, पमोक्खमग्गं, पिज्जाणमग्गं, गिव्वाणमग्गं, सव्व- दुक्खपरिहाणि मग्गं, सुचरियपरिणिव्वाण मग्गं, अवित्तहं, अविसंति पवयणं, उत्तमं तं सद्दहामि, तं पत्तियामि तं रोचेभि, तं फासेमि, इदोत्तरं अघणं णत्थि ण भूदं ण भविस्सदि, णापणेण वा, दंसणेण वा, चरित्रेण वा, सुत्त्रेण वा इदो जीवा सिज्झंति, बुज्झति, मुच्वंति, परि णिव्याण यंति, सव्व दुक्खाण मंतंकरेंति, पडि - वियाणंति, समणोमि, संजदोमि, उवरदोमि, उवसंतोमि, उहि णिवडि- माण- माय मोस-मिच्छाणाण-मिच्छा दंसण- मिच्छाचरितं च पडिविरदोमि, सम्मणाण सम्पदंसण सम्पचरितं च रोचमि, जं जिणवरेहि पण्णत्तं, इत्थ मे जो कोई राइओ ( देवसिओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कड़ |
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अन्वयार्थ - ( भंते!) हे भगवन् ! ( इमं गिग्गंथं ) इस निर्बंध लिंग की ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ | ( इमं णिग्गंथं ) यह बाह्य आभ्यंतर परिग्रह से निर्ग्रथ लिंग ( पवयणं ) प्रवचन है अर्थात् मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण आगम में कहा है । ( अणुत्तरं ) यह अनुत्तर है अर्थात् इस निर्ग्रथ लिंग से भिन्न दूसरा और कोई उत्कृष्ट मोक्षमार्ग नहीं है ( केवलियं ) केवल संबंधी है अर्थात् केवली भगवान् द्वारा कथित है ( पडिपुण्णं ) परिपूर्ण है अर्थात् कर्मों का क्षय करने में कारणभूत होने से परिपूर्ण हैं ( पोगाइयं) नैकायिक है अर्थात् परिपूर्ण रत्नत्रय के निकाय से सम्बन्ध