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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( मेलिदं वा ) अथवा उच्चध्वनि से पढ़ने योग्य अक्षरों को मन्द-ध्वनिसे पढ़ा हो ( अण्णहादिण्णं ) अन्य प्रकार से उच्चारण किया हो ( अण्णहापडिच्छदं ) अन्यथा सुना हो ( आवासएसु ) आवश्यक क्रियाओं में ( परिहीणदाए ) हानि या त्रुटि ( कदो ) की हो ( वा ) अथवा ( कारिदो) कराई हो ( वा ) अथवा ( कीरंतो ) हीनता करने वाले की ( समणुमणिदो ) अनुमोदना की हो ( तस्स ) तत्संबंधी ( में ) मेरे ( दुक्कडं ) दुष्कृत ( मिच्छा ) मिथ्या हों, मेरे पाप निष्फल होवें ।
वद-समि-दिदिय रोधो, लोचावासय-मधेल-मण्हाणं । खिदि-सयण-मदंतवणं, ठिदि- भोयण- मेयभत्तं च ।।१।। एदे खलु मूल-गुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद-कदादो, अइचारादो णियत्तोऽहं ।।२।।
छेदोवट्ठावणं होउ माझं अथ सर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थं रात्रिक ( देवसिक ) प्रतिक्रमणक्रियायां कृत-दोष-निराकरणार्थ पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थ, भाव- पूजा-वन्दना-स्तव समेतं, चतुर्विंशति तीर्थकर- भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
अर्थ—अब व्रतों में लगे सभी अतिचारों को विशुद्धि के लिये रात्रिकदैवसिक प्रतिक्रमण क्रियाओं में किये गये दोषों का निराकरण करने के लिये पूर्व आचार्यों के क्रम से सकल/सम्पूर्ण कर्मो के क्षय के लिये भावपूजा-भाव वन्दना स्तवन सहित चौबीस तीर्थंकर भक्ति के कायोत्सर्ग को मैं करता हूँ।
इति प्रतिज्ञाप्य अर्थ-ऐसी प्रतिज्ञा करके "णमो अरहंताणं" इत्यादि दण्डक बोलकर कायोत्सर्ग करना चाहिये तथा तत्पश्चात् "थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशति स्तव का पाठ करना चाहिये।
चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति 'चउवीसं तित्थयरे उसहाइ-वीर-पच्छिमे बन्दे ।
सध्ये सगण-गण-हरे सिद्धे सिरसा णमंसामि ।।१।। १ क्रियाकलाप पृ० ६७ के अनुसार ।