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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ (जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र देव ! ( मम ) मुझे ( यावत् ) जब तक ( निर्वाणसम्प्राप्ति: ) मोक्ष सुख की प्राप्ति ( न ) नहीं होवे ( तावत् ) तब तक ( तव ) आपके ( पादौ ) दोनों चरण-कमल ( मम ) मेरे ( हृदये) हृदय में ( तिष्ठत् ) विराजमान रहें ( मम ) मेरा ( हृदयं) हृदय ( तव) आपके ( पदवये ) दोनों चरण-कमलों में ( लीनं ) लीन रहे।
भावार्थ-हे जिनदेव ! जब तक मुझे निर्वाण की प्राप्ति न हो तब तक आपके दोनों चरण-कमल मेरे हृदय में रहें और मेरा हृदय आपके चरणों में लीन रहे जिससे हमारे मन में अशुभ विचारों का चिन्तन नहीं होगा एवं पाप-कर्मों का क्षय होगा।
अक्खर-पयत्थ-हीणं, मसा-हीपं च जं मए भणियम् ।
खमड पाण- देव ! य पज्झवि दुम्सक्खयं कुणउ ।।३।।
अन्वयार्थ-( णाणदेव !) हे कैवल्यज्योतिमयी ज्ञानदेव ! ( मए ) मेरे द्वारा ( जं) जो भी ( अक्खरपयत्थहीणम् ) अक्षर-पद-अर्थ रहित (च) और ( मत्ताहीणं) मात्रा रहित ( भणियं ) कहा गया ( तं) उसको ( खमउ ) क्षमा कीजिये ( य ) और ( मज्झवि ) मेरे भी ( दुक्खक्खयं ) दुःखों का क्षय ( कुणउ ) कीजिये ।
आलोचना इच्छामि भंते ! समाहि-मत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोधेडे रयणत्तय-सरूव-परमप्प झाणलक्खण-समाहि- प्रत्तीए णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, पामस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ गमणं, समाहि-मरणम्, जिन-गुण-संपत्ति होउ मज्झं। ___ अन्वयार्थ ( भंते ! ) हे भगवन् ! ( समाहिभत्ति ) मैंने समाधिभक्ति का ( काउस्सग्गो ) कायोत्सर्ग ( कओ ) किया ( तस्स ) तत्संबंधी ( आलोचे3) आलोचना करने की ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ । मैं ( रयणत्तयरूवपरमप्पज्झाणलक्खण ) रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा का ध्यान है लक्षण जिसका ऐसे ( समाहिभत्तिम् ) समाधिभक्ति की ( णिच्चकालं ) सदा, हमेशा/नित्यकाल ( अच्चेमि ) अर्चना करता हूँ ( पूज्जेमि ) पूजा करता हूँ, (वंदामि ) वन्दना करता हूँ ( णमस्सामि ) नमस्कार करता हूँ, मेरे ( दुक्खक्खओ)