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लिपान शान प्रबोशिगे टीना (इति विज्ञाप्य-णमो अरहंताणं इत्यादि दण्डकं पठित्वा कायोत्सर्ग कुर्यात् । थोस्सामीत्यादि स्तवं पठेत् )
इस प्रकार विज्ञापन करके-णमो अरहताणं इत्यादि दण्डक को पढ़कर कायोत्सर्ग को करे । थोस्सामी इत्यादि स्तव पढ़े।
अथेष्ट प्रार्थना प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः ।
अर्थ—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग को नमस्कार हो।
शाखाध्यासो जिनपति-नुतिः संगतिः सर्वदाय:, सद्-वृत्तानां गुण-गण-कथा दोष वादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो भावनाचात्म-तत्त्वे,
सम्पद्यन्तां मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ।।१।।
अन्वयार्थ ---( मम ) मुझे ( यावत् ) जब तक ( अपवर्गः ) मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक ( भवभवे ) भव/भव अर्थात् जन्म-जन्म में ( शास्त्र ) शास्त्रों का ( अभ्यास: ) पठन-मनन-चिंतन ( जिनपतिनुतिः ) जिनेन्द्र देव के चरणों को नमस्कार ( सर्वदा ) हमेशा ( आर्यै: ) आर्य पुरुष/चारित्रवान्, सज्जन पुरुषों की ( संगतिः ) संगति ( सवृत्तानां गुणगणकथा ) सच्चारित्र परायण पुरुषों के गुणों की कथा ( दोष वादे च ) पर के दोष और कथन दूसरों से विवाद में ( मौनं ) मौन ( सर्वस्यापि ) सब जीवों के साथ ( प्रिय हितवच: ) प्रिय व हितकर वचन ( आत्मतत्त्वे ) आत्मतत्त्व में स्वात्मास्वरूप में ( भावना ) भावना ( एते ) इन सब वस्तुओं की ( सम्पयन्तां ) प्राप्ति हो।
भावार्थ हे प्रभो ! जब तक मुझे उत्तम मुक्ति पद की प्राप्ति नहीं हो तब तक इन इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति प्रत्येक जन्म में होती रहे-जिनागम का अभ्यास, पंचपरमेष्ठी नमन, आर्यजन संगति सज्जनों की गुणकथा, दूसरों के दोष व विवाद में मौन, हित-मित प्रियवचन और आत्मतत्त्व की भावना ।
तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पद-द्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्-यावन्-निर्वाण-सम्प्राप्तिः ।। २।।