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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( शिवसुखं ) मोक्ष सुख ( सम् आप्यते ) अच्छी तरह से प्राप्त होता है ( तस्मै ) इसलिये ( धर्माय ) धर्म के लिये ( नम: ) नमस्कार हो । ( भवभृतां ) संसारी प्राणियों का ( धर्मात् ) धर्म से ( अपर: ) भित्र, अन्य कोई दूसरस ( सुहृद् ) मित्र ( न अस्ति ) नहीं है । ( धर्मस्य ) धर्म की ( मूलं ) जड़ ( दया ) दया है । ( अहं ) मैं ( प्रतिदिनं प्रतिदिन/सदैव ( चित्तं ) मन को ( धमें ) धर्म में ( दधे ) लगाता हूँ। ( हे धर्म ! ) हे धर्म ( मां ) मेरी ( पालय ) रक्षा करो। इस श्लोक में धर्म के साथ सातों विभक्तियों का सुन्दर प्रयोग किया है।
धम्मो मंगल-मुक्किहुं अहिंसा संयमो तयो । 'देवा वि तं णमंसति जस्स घम्मे सया मणो ।।८।।
अन्वयार्थ ( अहिंसा ) अहिंसा { संयमो ) संयम ( तवो ) और तप रूप ( धम्मो ) धर्म ( मंगलम् ) मंगल ( उद्दिट्ट ) कहा गया है ( जस्स ) जिसका ( मणो ) मन ( सया ) सदा ( धम्मे ) धर्म में लगा रहता हैं ( तस्स ) उसको ( देवा वि ) देव भी ( णमंसंति ) नमस्कार करते हैं ।
विश्व के समस्त धर्मों में अहिंसा, संयम और तप ये तीन सिद्धान्त सम्प्रदाय निरपेक्ष हैं अर्थात् विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा, संयम और तप की महत्ता को स्वीकार किया है।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! पडिक्कमणादिचार-मालोचेउं सम्मणाण सम्पदसणसम्मचारित्त-तव-वीरियाचारेसु, जम-णियम संजप-सील-मूलत्तर-गुणेसु, सव्व-मइचारं सावज्ज-जोगं पडिविरदोमि, असंखेज्ज-लोग-अज्झव. साय-ठाणाणि, अप्पसत्व-जोग-सण्णा-णिदिय-कसाय-गारव-किरियासु, मण-वयण-काय-करण-दुप्पणिहा-णाणी, परि-चिंतियाणि, किण्हणील-काउ-लेस्साओ, विकहा-पालिकुंचिएण, उम्मग-हस्स-रदि-अरदिसोय-भय-दुगंछ-वेयण-विज्झंभ-जम्भाइ-आणि, अट्ट-सह-संकिलेसपरिणामाणि- परिणामदाणि, अणिहुद-कर-चरण- मण-वयण-कायकरणेण, अक्खित्त-बहुल-पराय-रोण, अपडि-पुण्णेण वा सरक्खराश्य१. "देवा दि तम्म पणनि' पाठ में एक अक्षर अधिक है।