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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ—( ये ) जो भव्य पुरुष ( ध्यान स्थिता: ) ध्यान में स्थित होकर ( संयमयोगयुक्ताः ) संयम सहित योग से युक्त होते हुए ( नित्य ) प्रतिदिन/हमेशा ( वीर पादौ ) वीर भगवान् के दोनों चरण-कमलों को ( प्रणमन्ति ) नमस्कार करते हैं ( ते ) वे भव्य पुरुष ( लोके ) संसार में ( हि ) निश्चित रूप से ( वीतशोका ) शोक मुक्त/शोक रहित ( भवन्ति ) होते हैं ( विषमं ) विषम ( संसार दुर्गम् ) संसाररूपी अटवी को ( तरंति । तिर जाते हैं अर्थात् पार कर मुक्त हो जाते हैं।
भावार्थ-इस श्लोक में वीर भगवान् को नमस्कार करने का फल और पूजक का लक्षण चित्रित किया है । “संयम सहित वीरप्रभु की भक्ति करने वाला मुक्ति को प्राप्त होता है।'' व्रत-समुदय-मूल: संयम-स्कंध-बंथो,
यम-नियम-पयोभि-वर्धितः शील-शाखः । समिति- कलिक- भारो गुप्ति-गुप्त-प्रवालो,
गुण-कुसुम-सुगंधिः सत्-तपश्चित्र-पत्रः ।।४।। शिव-सुख-फल-दायी यो दया-छाय- योद्धः,
शुभ-जन-पथिकानांखेद-नोदे समर्थः । दुरित-रविज-तापं प्रापयन्नन्तभावम्,
समव-विभव- हान्यै नोऽस्तु चारित्र-वृक्षः ।।५।। अन्वयार्थ ( व्रत समुदयमूल: ) व्रतों का समूह जिसकी जड़ है ( संयमस्कन्धबन्धो ) संयम जिसका स्कन्ध बन्ध है ( यम नियमपयोभिः ) यम और नियमरूपी जल के द्वारा जो ( वर्द्धितः ) वृद्धि को प्राप्त है ( शोलशाखः ) १८ हजार शील जिसकी शाखाएँ हैं ( समितिकलिक भारः ) पाँच समिति रूप कलिकाएँ 'भार हैं ( गुप्ति गुप्तप्रवाल: ) तीन गुप्नियाँ जिसमें गुप्त कोंपल है ( गुणकुसुमसुगंधिः ) ८४ लाख उत्तरगुण व २८ मूलगुण जिसके पुष्पों की सुगन्धि है ( सत्तपः ) समीचीन तप ( चित्रपत्र: ) चित्र-विचित्र पत्ते हैं । ( य: ) जो ( शिवसुखफलदायी ) मोक्षरूपी फल को देने वाला है ( दयाछायया ओघ: ) दयारूपी छाया समूह से युक्त है ( शुभजनपथिकानां ) शुभोपयोग मे दत्तचित्त पथिकों या भव्य जनों के ( खेदनोदे ) खेद को दूर करने में ( समर्थ: ) समर्थ है ( दुरित-रविज