________________
७२
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका पद- समि-दिदिय रोधो, लोचावासय-मचेल-महाणं । खिदि-सयण-मदंतवणं, ठिदि-भोयण-मेय- भत्तं च ।।१।। एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एस्थ पमाद-कदादो, अइचारादो णियत्तोहं ।। २।।
छेदोवट्ठावणं होउ मज्झं अथ सर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थं रात्रिक ( दैवसिक ) प्रतिक्रमण-क्रियायां कृत-दोष-निराकरणार्थ पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थ, भाव-पूजावन्दना-स्तव-समेतं श्री निष्ठितकरण-वीर भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
___ अन्वयार्थ ( अथ सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं ) अब सब अतिचारों की विशुद्धि के लिये ( रात्रिक-दैवसिक ) रात्रिक-दैवसिक ( प्रतिक्रमण क्रियायाम् ) प्रतिक्रमण क्रिया में ( कृतदोष-निराकरणार्थ ) किये गये दोषों का निराकरण करने के लिये ( पूर्वाचार्यानुक्रमेण ) पूर्व आचार्यों के अनुसार ( सकलकर्मक्षयाथं ) सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने के लिये ( भाव-पूजा वन्दना-स्तव-समेतं ) भाव पूजा, वन्दना और स्तवन सहित ( निष्ठितकरण ) निष्ठितकरण ( वीरभक्ति कायोत्सर्ग ) वीर भक्ति के कायोत्सर्ग को ( अहम् ) मैं ( करोमि ) करता हूँ।
( इति प्रतिज्ञाप्य ) ऐसी प्रतिज्ञा करके दिवसे १०८ रात्रौ च ..... चतुर्विशतिस्तवं पठेत्) ।
अर्थ-इस प्रकार प्रतिज्ञा करके दिन में १०८ तथा रात्रि में ५४ उच्छ्वासों में “णमो अरहंताणं' इत्यादि पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिये एवं तत्पश्चात् थोस्सामि .... करना चाहिये।
यः सर्वाणि चराचराणि विधि-वद्, द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूत-भावि- भवितः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत्-प्रतिक्षण-मतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः ।।१।।
अन्वयार्थ-( यः ) जो ( सर्वाणि ) सम्पूर्ण ( चर-अचराणि ) चेतन और अचेतन ( विधिवत् ) स्वरूपानुसार उनकी ( द्रव्याणि ) द्रव्यों को ( तेषां ) और उनके ( गुणान् ) समस्त गुणों को ( भूतभाविभवत: ) भूत-भावी और