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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका लक्षण प्रतिष्ठापन समिति में ( मण गुनीए-वचि गुत्तीए-काय गुत्तीए ) मनो गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति में ( पाणादित्रादादो वेरमणाए । प्राणातिपात से विरक्ति रूप अहिंसा महाव्रत मे ( मुसावादादो वेरमणाए ) असत्य भाषण से विरक्ति रूप सत्य महानत में ( अदिगगादाणादो वेरमणाए ) अदत्तादान से विरक्त रूप अचौर्य महाव्रत में ( मेहुणादा वेरमणाए ) मैथुन से विरक्ति रूप ब्रह्मचर्य महाव्रत मे ( परिग्गहादो वेरमणाए ) परिग्रह से विरक्त रूप अपरिग्रह महाव्रत में ( राई भोग्यणादो वेरमणाए ) रात्रिभोजन से विरक्त रूप षष्ठम रात्रिभोजन अणुव्रत में ( सव्वविराहणाए ) सब एकेन्द्रियादि जीवों की विराधना में ( सन्चधम्म अइक्कमणदाए ) सर्वधर्मों का अतिक्रमण किया हो अर्थात् जो आवश्यक कार्य जिस काल में करना बतलाये हैं उनको उल्लंघन करने में ( सवमिच्छाचरियाए ) मिथ्या आचार का सेवन किया हो ( इत्य ) इस प्रकार ( मे ) मेरे द्वारा ( जो कोई ) जो भी कोई ( राइयोदेवसिओ) रात्रिक-देवसिक क्रियाओं में ( अइयारो-अणायारो) अतिचार अनाचार हुए हों ( तस्स ) तत्संबंधी ( मे ) मेरे ( दुक्कडं ) दुष्कृत/पाप ( मिन्छा ) मिथ्या हों, निष्फल हों। इसलिए ( पडिक्कमामि ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
हे भगवन् ! तेरह प्रकार चारित्र की आराधना में लगे अतिचार अनाचार रूप दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
इच्छामि भंते ! वीर भक्ति काउस्सग्गो जो में राइओ ( देवसिओ) अइचारो, अणाचारो, आभोगो, अणाभोगो, काइओ, वाइओ, माणसिओ, दुञ्चितिओ, दुम्भासिओ, दुप्परिणामिओ, दुस्समणीओ, णाणे, सणे, चरित्ते, सुत्ते सामाइए, पंचण्हं महब्बयाणं, पंचपहं समिदीणं, तिण्हं गुत्तीणं, छाहं जीव-णिकायाणं, छण्हं आवासयाणं, विराहणाए, अट्ठ-विहस्स कम्मस्स-णिग्यादणाए, अण्णहा उस्सासिएण वा, णिस्सासिएण वा, उम्मिसिएण वा, णिम्मिसिएण वा, खासिएण वा, छिक्किएण वा, अंभाइएण वा, सुहुमेह-अंग-चलाचलेहिं दिट्ठि-चलाचलेहि, एदेहि सव्वेहि 'आयरेहि, असमाहि-पत्तेहिं, जाव अरहताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि, ताव कायं पाव कम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि ।
ध्यान दीप्कों में "एदेहि सर्वहिं असमाहिं पनेहिं आयरेहि पाउ छपा हुआ है, किन्तु "प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयों' में एदेहि सळेहि ( पते: प्रागर्न सर्व। आयाहि । अचार पारेकशिदोष जातः ! पाट हैं जो प्रसंगानुसार होने से ठीक मालम होता है ।