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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( इहलोयसण्णाए ) इस लोक संबंधी सुख की इच्छा में ( परलोयसण्णाए ) परलोक संबंधी सुख की इच्छा में ( आहार सण्णाए ) आहार संज्ञा में ( भय सण्णाए ) भय संज्ञा में ( मेहुण सणणाए ) मैथुनसंज्ञा में ( परिग्गह सण्णाए ) परिग्रह संज्ञा में ( कोहसल्लाए ) क्रोध शल्य ( माण सल्लाए ) मानशल्य ( माया सल्लाए ) माया शल्य में ( लोह सल्लाए ) लोभ शल्य में ( पेम्मसल्लाए ) प्रेम शल्य ( पिवाससल्लाए ) पिपासा शल्य ( णियाण सल्लाए ) निदान शल्य ( मिच्छादसणसल्लाए ) मिथ्यादर्शन शल्य ( कोहकन्या ! क्रोध-कापाय ( माय ! मान कषाय ( माया कसाए ) माया कषाय ( लोह कसाए ) लोभ कषाय ( किण्हलेस्स परिणामे ) कृष्णलेश्या के परिणाम (णीललेस्सपरिणामे ) नील लेश्या के परिणाम ( काउलेस्सपरिणामे ) कापोत लेश्या के परिणाम ( आरंभपरिणामे ) आरंभ परिणाम ( परिंग्गह परिणामे ) परिग्रह के परिणाम ( पडिसयाहिलासपरिणामे ) प्रतिश्रयाभिलाषपरिणाम ( मिच्छादसणपरिणामे ) मिथ्यादर्शन के परिणाम ( असंजम परिणामे ) असंयम के परिणाम ( पावजोगपरिणामे ) पापयोग्य परिणाम ( कायसुहाहिलास परिणामे ) शारीरिक सुख की अभिलाषा के परिणाम ( सद्देसु ) मनोज्ञ शब्दों के सुनने में ( रूवेसु ) रूप देखने में ( गंधेसु ) सुगंधित कर्पूर, चन्दन आदि की गंध में ( रसेसु ) तिक्त मधुरादि रसों में ( फासेसु ) मृदु कठोर कोमल स्निग्ध आदि स्पर्श में ( काइयाहिकरणियाए ) कायाधिकरण क्रिया में ( पदोसियाए ) प्रदोष क्रियादुष्ट मन-वचन-काय लक्षण क्रिया में ( परिंदावणियाए ) परितापन क्रिया में ( पाणाइवाइयासु ) प्रागातिपात में--- पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास, आयु-इन दस प्राणों का वियोग करने में ( इत्थं मे ) इस प्रकार आर्तध्यानादि परिणामों से मेरे द्वारा ( राईओ-देवसिओ ) रात्रिक
दैवसिक क्रियाओं में ( जो कोई ) जो कोई भी ( अइचारो ) अतिचार ( अणायारो ) अनाचार हुए हो ( तस्स ) तत्संबंधी ( मे ) मेरे ( दुक्कडं ) दुष्कृत ( मिच्छा ) मिथ्या हों । इसलिए मैं दोषों के निराकरणार्थ प्रतिक्रमण करता हूँ।
भावार्थ हे भगवन् ! मैं आर्त्त-रौद्रध्यान रूप संक्लेश परिणामों से