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महोपाध्याय समयसुन्दर
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३. मेघविजय कविका प्रिय शिष्य है। स्वयं कवि ने सं० १६८७ में 'विशेष शतक' की प्रति लिखकर इसको दी थी । कवि इस पर प्रसन्न भी अत्यधिक था। इसने दुष्काल जैसे समय में भी कवि का साथ नहीं छोड़ा था । यही कारण है कि कवि इसकी प्रशंसा करता हुआ लिखता है:“मुनि मेघविजयशिष्यो, गुरुभक्तो नित्यपार्श्ववर्ती च । तस्मै पाठनपूर्व, दत्ता प्रतिरेषा पठतु मुदा || ६ || [ विशेषशतक लेखन प्रशस्तिः ]
(क) मेघविजय के शिष्य हर्षकुशल अच्छे विद्वान् थे । जैसे कवि को 'गुरुभक्त' मेघविजय अत्यन्त प्रिय थे, तो वैसे उनसे भी अत्यधिक पौत्र हर्षकुशल कवि को प्रिय थे। ऐसा मालूम होता है कि वृद्धावस्था में कवि ( दादागुरु ) की इसने प्राण-पण से सेवा की होगी । यही कारण है कि कवि वृद्धावस्था में भी स्वयं अपने जर्जर हाथों से लिखित माथकाव्य तृतीय सर्ग टीका, रूपकमाला अवचूरि आदि पचासों महत्त्व के ग्रन्थ इसको देता है; जैसा कि कवि लिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियों जाना जाता है । इसने 'द्रौपदी चतुष्पदी' की रचना में भी कवि को पूर्ण सहायता दी थी:
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वाचक हर्णनन्दन वलि, हर्णकुशलइ सानिधि कीजह रे । लिखन शोधन सहाय थकी, तिण तुरत पूरी करो दीधी रे | ६ |
[ द्रौ० चौ० तृ० सं० ७ वीं डाल]
इनकी स्वतंत्र रचना केवल 'वीसी' ही प्राप्त है
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