________________
उग्रसेनपुर मंधण श्री विनकुशन सूरि गीतम् ( ३५३ ) असपति गजपति नृपति उदारा, इंद्र तणा दीसह अवतारा। पुष कला अनइ परिवारा, ते सब तेज प्रताप तुम्हारा ।दा.।२। नर नारी आपद निस्तारा, अड़बड़ियां नइ तूंआधारा । परनिख परता पूरणहारा, मनवंछित फल पूरि हमारा ।दा.।३। नयर अमरसर धुभ निवेशा, प्रसिद्धि घणी प्रगटी परमेसा। सेव करइ सद्गुरु सुविशेषा, एह समयसुन्दर उपदेसा ।दा.।४।
उग्रसेनपुर मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम पंथी नह पूछूवातड़ी रे, तुमे आया उग्रसेनपुर थी आज रे। तिहां दीठा अम्ह गुरु राजीया, श्रीजिनकुशल सरिराज रे ॥१॥ सुखो नागोरी तुम गुर राजीया,अमे दीठा मारवाड़ मेवाड़ देस रे। धर्म मारग परकास रे, आणंद लील विलास रे ॥२॥ संघ सहु सेवा करड, राय राणा सहु धइ मान रे। आइ नमइ सहु नर नार रे, महिमा मेरु समान रे ॥३॥ मेरो मन घणो ऊमयो रे, वांदं मेरे गुरु ना पाय रे। समयसुन्दर सेवता रे, श्री जिनकुशलसरि गुरु राय रे ॥४॥
नागौर मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम उलट परि अमे आविया दादा, भेटण तोरा पाय । कर जोड़ी बीमदादा, आरति दुरि गमाय ॥१॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org