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दानसील तप भाव संवाइ शतक
( ५६.३ )
दुर्गति पडतां प्राणियां रे, राख श्री जिन धर्म | कुटंब सहू को कारिमुँ रे, मंति भूलउ भव मर्मो रे |४| ६० जीव जिके सुखी हूवा रे, बलि हुस्यड़ छह जेह |
ते जिवर ना धर्म थी रे, मति को करज्यो संदेहो रे || ध० ] सोलह सइ छासठि समइ रे, सांगानयर मारि । पद्म प्रभु सुपसाउ लइ रे, एह भयउ अधिकारो रे | ६ | ६० सोहम सामि परंपरा रे, खरतरगछ कुलचंद | जुगप्रधान जगि परगडा रे, श्री जिनचंद सूरिंदो रे | ७ | १० | तास सीस अति दीपतां रे, विनयवंत जशवंत । याचारिज चडती कला रे, श्री जिनसिंघसूरि महंतो रे | ८ | ध० | प्रथम शिष्य श्रीपूजना रे, सकलचंद तस सीस । समय सुन्दर वाचक भरणी रे, संघ सदा सुजगीसो रे || घः । दानसील तप भावना रे, सरस रच्यउ संवादो रे । भगतां गुणता भावसुं रे, रिद्धि समृद्धि सुप्रसादो रे | १०|ध ० ।
इति श्री दानसील तप भाव संवाद शतर्क संपूर्णम् । सर्वगाथा १०१ ग्रन्थाग्रन्थ श्लोक १३५ ।
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