Book Title: Samaysundar Kruti Kusumanjali
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Nahta Brothers Calcutta
View full book text
________________
( ५६२)
समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि
परनिंदा करतां थकां, पापइं पिंड भराइ । वेढि राढि बाधई घणो, दुर्गति प्राणी जाइ ॥२॥ निंदक सरिखउ पापीयउ, मँड उकोइ न दीठ ।। वलि चंडाल समउ काउ, नंदक मुख अदीठ ॥३॥ आप प्रसंसा आपणी, करता इंद नरिंद। लघुता पोमह लोक मइ, नासइ निज गुणवृन्द ॥४॥ को केहनी म करउ तुम्हे, निंदा नइ अहंकार ।
आप आपणो ठामइ रह्यउ, सहु को भलउ संसार ॥॥ तउ पणि अधिकउ भाव छइ, एकाकी समरत्थ । . दानसील तप त्रिण भला, पणि भाव विना अकयत्थ ॥६॥
अंजन आंखे प्रांजतां, अधिकी आणि ए रेख । रज मांहे तज काढतां, अधिकउ भाव विशेष ॥७॥ भगवंत हठ भांजण भणी, च्यारे सरिखा गणंति । च्यार करी मुख आपणा, चतुर्विध धरम भणंति ॥८॥
ढाल पंचमी-चेति चेतन करी एहनी वीर जिणेसर इम भणइ रे, बइठी परषदा बार । धरम करउ तुम्हे प्राणीया रे, जिम पामउ भव पारो रे।१। धरम हीयइ धरउ, धरम ना च्यार प्रकारो रे। भवियण सांभलउ, धरम मुगति सुखकारो रे ॥२॥ धरम थकी धन संपजइ रे, धरम थकी सुख होय । धरम थकी प्रारति टलइरे, धरम समउ नही कोयो रे।३।१०।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org
![](https://s3.us-east-2.wasabisys.com/jainqq-hq/7771e6b5bed2822e0e872f0b383ec4c65fc3d4845520cd8c8e5f7fa5bddcc93f.jpg)
Page Navigation
1 ... 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802