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पदेशिक गीतानि
( ४५६ )
पहिलु काम नइ भोग भोगव्या, संभारइ नइ तेह रे । छठी बाड़ ए छह भली पणि, जतनइ पालिस्य जेह रे | नव|७| वते कवलिए घी सुं, जिमइ नहीं ब्रह्मचारि रे ।
।
सातमी वाड़िए घणु ं सखरी, पणि विगय घी विकार रे । नव. ८| बीस वीस कवलिया, नारी नर नउ आहार रे । मी वाड़ एकही उत्तम, अधिको न ल्यइ निरधार रे | नव. || सरीर नी शोभा करइ नहीं, न करड़ उद्भट वेस रे नवमी वाड़ ए नित्य पालउ, सुयश देश प्रदेश रे । नव. | १० | कल्पवृक्ष ए शील कहियह, रोप्यउ श्री जिनराज रे । वाड़ रक्षा भणी भाखी, सेवज्यो सुखकाज रे । नव. १११ | पानड़ा प्रत्यक्ष प्रभुता, फूटरा सुख फूल रे । मुक्ति ना फल घणा मीठा, आपइ ए अमूल रे । नव. । १२ । संवत सवर मास आसू, नगर अहमदावाद रे समयसुन्दर वद वाणी, सकलचंद प्रसाद रे । नव. |१३|
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बारह भावना गीतम्
ढाल - तुङ्गिया गिरि सिखर सोहइ
भावना मन बार भावउ, तूटइ करम नी कोड़ि रे ।
तप संजम तउ छ भला, पण नहीं भावना नी जोड़ि रे । भा. । १ । पहली भावना एन भावउ, अनित्य आयुर दाय रे । तन धन यौवन कुटुम्बसहु ते, क्षण मांहे खेरु थाय रे । भा. । २ ।
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