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पुजरत्न ऋषि रास
(५५७ )
बार बार बारह वर कीधा, दस दस चउ चौवीस रे । बे सै पंचास अठाइ कीधी, मन संवेग सँ मेल रे ॥१६॥ छठ कीधा वलि सित्तर दिन लगै, पारणे छासि आहार रे। ते मांहि पिण एक अठाइ, कीधी इण अणगार रे ॥२०॥ बासठ दिन तांइ छठि कीधी, पारणइ छासि आहार रे। बार बरस लगि विगय न लीधी, ऋषि पुजा नै सावासरे।।२१।। वरस पांच लग वस्त्र न अोढ्यो, सह्यो परिसह सीत रे । साढा पांच वरस सीम आढो, स्वतो नहीं सुविदीत रे ॥२२॥ अभिग्रह एक कीधो वलि एहवो, चिठी लिखी तिहां एम रे। च्यार जणी पूजा करि इहां, तो घी बहिरावइ सुप्रेम रे॥२३॥ तौ पुंजो ऋषि ले नहीं तर, जावजीव ताई संस रे। ते अभिग्रह तीजै वर्षे फलीयो, श्री संघ नी पहुँची हंस रे॥२४॥ इण परि तेह अभिग्रह पहुतो, ते सांभलज्यो बात रे। अहमदाबादी संघ नरोडइ, वांदवा गयो परभात रे ॥२५॥ तिण अवसर फूलां गमतांदे, जीवी राजुलदे च्यार रे। पूजा करि बांदी बिहरायो, सूझतो घी सुविचार रे ॥२६॥ मौटो लाम थयो श्राविका ने, टाल्यो तिहां अंतराय रे । इण चिहुँ नै मन वंछित वस्तु नो, अंतराय नवि थाय रे ॥२७॥ वलि धन्ना अणगार तणो तप, कीधो नव मासी सीम रे। ते मांहिं बी अठाइ उपवास, च्यार अठम च्यार नीम रे॥२८॥ छमास सीन अभिग्रह कीधा, कोई फल्यो उपवास च्यार रे। उपवास सोल फल्यो कोइ, एह तप नौ अधिकार रे ॥२६॥
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