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कर्म छत्तीसी
( ५३१ )
नंदिषेण श्रेणिक नउ बेटर,
महोवीर नउ शिष्य जी । चार वरस वेश्या सं लुब्धउ,
कर्म नी वात अलक्ष जी । क.।२४। भगवंत नउ भाणेज अँवाई,
वीर सुं कीधी वेढि जी । तीर्थकर ना वचन उथाप्या,
हुयउ जमालि सुर ढेढ जी । का२॥ रजा साधवी रोग ऊपनो,
विणठो कोढ सरीर जी । भव अनंत भमी दुख सहती,
दोष दिखाड्यउ नीरि जी । क.।२६। सील समाह घणु समझावी,
तोहि न मूक्यां साल जी । रूपी राय रुली भव मांहे,
भंडे घणु हवाल जी । क.।२७) लक्ष भव रुली वलि लक्ष्मणा,
कवचन बोल्या एम जी । तीर्थंकर परपीड़ न जाणी,
मैथुन वारचउ केम जो । क.।२८
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