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पुण्य-छत्तीसी
( ५३६ )
लाधी ऋद्धि अथाह जी ॥ पु०॥२६॥ तुगिया नगरी श्रमणोपासक,
सुध क्रिया सावधान जी ।। उभय काल पड़िकमणो करता,
पामी गति परधान जी ॥ पु०॥३०॥ पूरब भव तीर्थंकर पूज्या,
लाधा अठारह राज जी । पद्मनाभ ना गणधर थास्ये,
कुमारपाल सारया काज जी ॥ पु०॥३१॥ राणे रावण श्रेणिक राजा,
अरच्या अरिहंत देव जी । बेहुँ गोत्र तीर्थंकर बांध्या,
सुरनर करस्यै सेव जी ॥ पु०॥३२॥ केसी गुरु सेव्यउ परदेसी,
सुर उपनो सुरिआम जी। चार हजार बरस एक नाटक,
आगे अनंतां लाभ जी ॥ पु०॥३३॥ इम अनेक विवेक धरंतां,
जीव सुखिया थया जाण जी । संप्रति छै सुखिया वलि थास्यै,
पुण्य तणे परमाण जी ॥ पु०॥३४॥
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