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जीव प्रतबोध गीतम्
। ४२३ )
अति तुच्छ सुख संसार नो, मधु लिप्त खड़गनी धार । किंपाक ना फल सारिखा रे. दयै दुख अनेक प्रकारोरे।जी.।। विश्वास म कर स्त्री तणउ ए, मुगधजन मृग पास । अति कूड कपट तणी कँडी वलि, दियइ २ दुर्गति वासोरे।जी.।७। जीव अत्यंत प्रमादियउ, दूषम काल दुरंत ।। तिण शुद्ध क्रिया नहीं पलइ, आधार एक भगवंतो रे ।जी.।। मन मेरु नी परइ दृढ करी, स्थिर पाली निरतिचार । भव भ्रमण थी जिम छूटियइ, पामियई भवनो पारो रे।जी.।। जग मांहि ते सुखिया थयो, पलि हुयइ हुइस्यइ जेह । ते वीतराग ना धरम थी रे, इहां नहीं कोई संदेहो रे ।जी.।१० जिन धर्म सूधो आदरे ए, सीख अमृत धार । गणि समयसुन्दर इम कहइ, जिम लहै भवनो पारो रे ।जी.॥११॥
जीव प्रतिबोध गीतम
राग-उड़ी ए संसार असार छइ, जीव विमासी जोय । कुटुंब सहु को कारमउ, स्वारथ नउ सहु कोय ।ए०।१। खिण खिण इन्द्रिय बल घटइ, खिण खिण टूटै आय। वृद्ध पणइ परवश पड्या, कहि किम धर्म कराय ए०।२। जाल जंजाल मांहि पड़ यउ, प्रालि जमारउ म खोय। कर तप जप एकै साधना, साचउ संबल जोय ।ए०।३।
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