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धर्म महिमा गीतम्
(४२५ )
तप करि काया सोखवी, सरस निरस आहार । वीर जिणंद वखाणियउ, ते धनउ अणगार रे।४। अनित्य भावना भावतां, धरतां निर्मल ध्यान । भरत प्रारीसा भवन मई, पाम्यउ केवल ज्ञान रे।५। श्री जिन धर्म सुरतरु समो, जेहनी शीतल छोहि । समयसुन्दर कहइ सेवता, मुक्ति तणां फल पाहि ।रे.।६।
जीव नटावा गीतम्
राग-मट नारायण देखि देखि जीव नटावइ, अइसउ नाटक मंड्यउ री। कर्म नायक नृत्य करायउ, खेलत ताल न खंड्यउ री ॥दे.॥१॥ कबहि राजा कहि रंक, कबहि भेख त्रिदण्ड्यउ । कबहि मूरिख कबहि पंडित, कबहि पुस्तक पंड्यउ री ॥दे.॥३॥ चउरासी लख भेख बनाए, कोउ भेख न छंड्यउ । समयसुंदर कहइ धर्म बिनासब, आप वृथा कर भंड्यउरी॥४॥
आत्म प्रमोद गीतम्
राग-कालहरउ वृझिरे त बुझि प्राणी, वालि मन वइराग रे। अथिर नर आउखं दीसइ, जाणि संध्या राग रे ॥॥०॥ मानुषो भव लही दुर्लभ, पापे पिंड म भार रे। आल काग उडावणे कुं, मूढ रत्न म हार रे ॥२॥बू.॥
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